Tuesday, April 7, 2009

दलित विमर्श चालू आहे...।

लावण्या शाह मुम्बई फिल्म जगत के शीर्ष पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा जी की बेटी हैं। उन्होंने पिछले दिनों अपने ब्लॉग पर एक दलित जाति की विमान परिचारिका के बारे में प्रशंसात्मक पोस्ट लिखी थी। लेकिन किसी नीलोफ़र ने अपनी टिप्पणी में उन्हें यह याद दिला कर आहत कर दिया कि उनकी माँ भी भंगी जाति की थीं। अपनी आहत भावना को प्रकट करके लावण्या जी एक आफ़त मोल ले ली। दलित विमर्श के महारथी मसिजीवी ने एक पोस्ट लिखकर उनके आहत होने पर आपत्ति उठायी।

मसिजीवी जी के अनुसार उनकी पूरी पोस्‍ट केवल उस उच्‍चकुलताबोध की ओर संकेत भर करने के लिए ही थी जो हम कथित सवर्णों में त्‍वचा पर हल्‍की सी खरोंच पड़ते ही उभर आता है। इस उच्‍चता बोध की सजा हमें अपमानित करके दी जानी चाहिए या नही ये दलित चिंतन इतिहास की अपनी रेख में तय करेगा/कर रहा है। कुल मिलाकर मैं केवल इसी ओर इंगित कर रहा था कि जिस एक संबोधन से हम झट आहत हो अपनी बाम्‍हनपन या ठकुराई के तमगे दिखाने लगते हैं वह कितनों ही की पीढि़यों का सच रहा है।

मामला बदसूरती की ओर बढ़ता देखकर लावण्या जी ने अपनी पोस्ट ही डिलीट कर दी। गीत संगीत और कविता की शौकीन शान्तिप्रिय लावन्या जी बेचारी लफ़ड़े में क्यों फ़ँसतीं? हम सबने अपनी-अपनी शैली में टिप्पणिया भी की थीं।

इस मसले को बीते काफी दिन हो चले थे लेकिन आभा जी ने अपना घर पर मसिजीवी जी को आड़े हाथों लेते हुए उनके तर्कों का खण्डन करता हुआ आलेख प्रकाशित किया है। अब चर्चा एक बार फिर जोर पकड़ रही है। लेकिन लावण्या जी को जब अनूप शुक्ल ने यह बताया कि कोई सामग्री डिलीट नहीं हुई है तो वे एक बार फिर से दुखी हो गयी हैं।

मेरा मानना है कि इस सारे मसले से कुछ अच्छी बात ही हुई है। हमारी भाषा में कुछ जातिसूचक शब्द इस प्रकार से घुलमिल गये हैं कि बदले सामाजिक परिवेश में वे कभी कभी संकट पैदा कर देते हैं। यदि हम इस बदली तस्वीर के प्रति जागरुक नहीं रहे तो ऐसे ही करुण दृश्य उपस्थित होते रहेंगे। इस मामले पर मेरा अपना विश्लेषण कुछ यूँ है:

मेरे ख़याल से इस प्रकरण में हमें थोड़े ठण्डे दिमाग से सोचने की जरूरत है। चमार, भंगी इत्यादि होने और कहलाने में बड़ा फर्क है। इन शब्दों के प्रयोग में जो रूढ़ता आ गयी है उसे समझे बगैर हम एक सर्व सम्मत निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाएंगे।

दर असल ‘चमार’ शब्द का प्रयोग अब सिर्फ़ एक जाति के लिए ही नहीं होता बल्कि भाषा में यह एक जीवन शैली का अर्थ भी देता है। सवर्णों के बीच भी किसी के घटिया व्यवहार के लिए ‘चमारपन’ का विशेषण प्रयुक्त होता है। यहाँ चमार का मतलब गन्दा, असभ्य, बदतमीज, दुष्ट, अधम, फूहड़, घिनौना, संस्कारहीन, स्वाभिमानविहीन, निर्लज्ज, और मूर्ख कुछ भी हो सकता है।

कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर भंगी या मेहतर होते थे जिनका पेशा झाड़ू लगाना और सिर पर मैला ढोना होता था। ऐसे लोग गन्दगी के पर्याय होते थे। बड़ा ही तुच्छ समझा जाता था इन्हें। इनसे थोड़ा ऊपर चर्मकारी का पेशा था जो मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने से लेकर उनका संस्कार करके चमड़े के जूते और दूसरे सामान तैयार करते थे। यही चमार (चर्मकार) कहलाते थे। मोचीगिरी इनका ही पेशा था। इन्हें समाज में जैसा स्थान प्राप्त था, और जैसी छवि थी उसी के अनुरूप इनके जातिसूचक शब्दों से भाषा में मुहावरे और विशेषण बन गये।

आज के आधुनिक समाज में अब जाति आधारित कामों के बँटवारे को समाप्तप्राय किया जा चुका है। अभी उत्तर प्रदेश सरकार ने ग्राम पंचायतों के लिए लाखों सफाई कर्मियों की भर्ती की है जिनमें बेरोजगारी से पीड़ित सभी जातियों के लड़कों ने पैसा खर्च करके स्वेच्छा से स्वच्छकार की नौकरी चुनी है।

सामाजिक दूरियाँ सिमट रही हैं। लेकिन भाषायी रूढ़ियों को इतनी आसानी से नहीं बदला जा सकता। किसी को ‘चमार’ कहना इसीलिए आहत करता है कि उसका आशय आजके समता मूलक समाज में पल रहे एक जाति विशेष के सदस्य से नहीं है बल्कि ऐसे अवगुणों से युक्त होना है जो आज का चमार जाति का व्यक्ति भी धारण करना नहीं चाहेगा। कदाचित्‌ इसी गड़बड़ से बचने के लिए सरकारी विधान में जाति सूचक शब्दों के प्रयोग पर रोक लग चुकी है।

लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के नाम पर अपने को ‘चमार’ कहे जाने का लिखित प्रमाणपत्र मढ़वाकर रखा जाता है। अपने को चमार बताकर पीढ़ी दर पीढ़ी उच्चस्तर की नौकरियाँ बिना पर्याप्त योग्यता के झपट लेने वाले भी समाज में चमार कहे जाने पर लाल-पीला हो जाते हैं।

किसी सवर्ण को जहाँ-तहाँ बेइज्जत करने का कोई मौका नहीं चूकते। अपनी इस कूंठा को खुलेआम व्यक्त करते हैं और दलित उत्पीड़न का झूठा मुकदमा ठोंक देने की धमकी देकर ब्लैक मेल करने पर इस लिए उतारू हो जाते हैं कि उसके बाप-दादों ने इनके बाप-दादों से मैला धुलवाया था।

आज सत्ता और सुविधा पाने के बाद ये जितनी जघन्यता से जातिवाद का डंका पीट रहे हैं उतना शायद इतिहास ने कभी न देखा हो।

तो भाई मसिजीवी जी, इस दोगलेपन का यही कारण है कि `चमार जाति' और `चमार विशेषण' का अन्तर इस शब्द के प्रयोग के समय अक्सर आपस में गड्ड-मड्ड हो जाता है।

लावण्या जी का आहत होना स्वाभाविक है। नीलोफ़र का असभ्य भाषा का प्रयोग निन्दनीय। और आभा जी की कटुक्तियाँ इसी धारणा पर चोट करती हैं।

आधुनिक समाज में सफाई और सैनिटेशन का काम मशीनों और दूसरे उद्योगपतियों ने भी सम्हाल लिए हैं। लेकिन इन विशेषणों से छुटकारा मिलने में अभी वक्त लगेगा। एक सभ्य आदमी को इसके प्रयोग से बचना चाहिए।

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2 comments:

  1. "सामाजिक दूरियाँ सिमट रही हैं। लेकिन भाषायी रूढ़ियों को इतनी आसानी से नहीं बदला जा सकता।"

    यही सच है ! अच्छा और बुद्धिगम्य विवेचन किया आपने ! आपके ब्लॉग शीर्षक पर चर्चा का मन है फिर कभी !

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  2. ekdam sateek vishleshan .sau pratishat sahamat.jaati vishesh ke nam par sare fayade lene me parhej nahi hai, bas koi jatisoochak shabda kah de to bura ho gaya.meetha meetha gappa kadwa-kadwa thoo.kab tak?

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