Tuesday, April 14, 2009

मा. प्रधानमन्त्री जी, बताइए न…! कौन किसपर शर्म करे?

यह आलेख ‘वेंकटरमण अम्मनगुडी’ ने मूलतः अंग्रेजी में लिखा था। चुनावी माहौल में इसे अनूदित करके यहाँ पोस्ट करने का उद्देश्य बस इतना है कि वोट डालने से पहले आप जो विचार मन्थन कर रहे होंगे उसमें शायद यह कुछ मदद करे। सादर! (मलय)

[लेखक परिचय: पेशे से इन्जीनियर वेंकटरमण अम्मनगुडी हिन्दू धर्म और दूसरे मुख्य पन्थों के बीच समानता और असमानता को समझने के लिए समर्पित हैं। साथ ही अंग्रेजी गुलामी का भारतीय मानस पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन में भी इनकी गहरी रुचि है। पढ़े लिखे हिन्दुओं में अपनी परम्पराओं के प्रति गौरव की स्वस्थ भावना की कमी और निष्क्रियता का भाव तथा दूसरे धार्मिक विश्वासों के प्रति तुष्टिकरण की प्रवृत्ति का विश्लेषण कर इसके निरोधात्मक उपायों की खोज करना इनकी विशेषता है।]


मा. प्रधानमन्त्री जी, बताइए न…! कौन किसपर शर्म करे?
उड़ीसा के कन्धमाल जिले में २३ अगस्त, २००८ को स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या उनके आश्रम में कर दी गयी। आश्रम के कुछ और निवासियों और औरतों की हत्या भी इस हमले में हुई थी। इस क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ काफी सक्रिय रही हैं लेकिन इस बीच उन्हें हिन्दुओं का ‘धर्म परिवर्तन कराने में कठिनाई’ होने लगी थी। यह तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है कि ऐसे बर्बर कृत्य के पीछे ईसाई मिशनरियों का ही हाथ था।

इसके करीब एक माह बाद, २९ सितम्बर २००९ को प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने मार्सेई में युरोपीय समुदाय और भारत के शिखर सम्मेलन के अवसर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को सम्बोधित किया। राष्ट्रपति सारकोज़ी ने आपसी बात-चीत में ‘कन्धमाल के ईसाइयों पर हो रहे हमलों’ की चर्चा की तो हमारे प्रधानमन्त्री जी ने फरमाया कि ऐसी घटनाएं देश के लिए शर्मिन्दगी का कारण बनती हैं।

शर्म: शर्म किसको? किस चीज से?

जब कश्मीरी पण्डितों पर आए दिन हमले होते रहे हैं और इस्लामी आतम्कियों द्वारा उनकी हत्या की जाती रही है, तो आजतक किसी ने यह नहीं कहा कि इन घटनाओं ने देश को शर्मसार किया है। बंगलौर स्थित विज्ञान संस्थान के परिसर में आतंकियों द्वारा वैज्ञानिकों की हत्या ने भी देश को शर्मसार नहीं किया। तमिलनाडु में घटिया निर्माण सामग्री से तैयार स्कूल भवन के गिर जाने से उसमें दबकर मासूम बच्चों के मर जाने से भी देश शर्मसार नहीं हुआ। यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से निकली जहरीली गैस से ६००० लोगों की मृत्यु से भी कोई शर्म नहीं आयी। देश के पूर्वी भागों में नक्सलियों के हाथों लगातार मारे जा रहे पुलिसवालों के लिए भी देश में कोई शर्म नहीं आयी। जब मीडिया और सरकार द्वारा हिन्दू देवी देवताओं का अनादर किया जाता है और मजाक उड़ाया जाता है तो भी देश शर्मसार नहीं होता। तो फिर डॉ. मनमोहन सिंह जी बताइए, कन्धमाल की इन घटनाओं से देश शर्मिन्दा क्यों होने लगा? यह प्रश्न मेरे दिमाग में लगातार उमड़-घुमड़ रहा है।

कुछ साल पहले की बात है, पूरे अमेरिका में बच्चों के यौन शोषण की दिल दहला देने वाली घटनाओं के लिए ईसाई चर्च पर आरोप लगे थे। जब जार्ज बुश ने इस बात की चर्चा की तो उन्होंने यह नहीं कहा कि वे चर्च और इसके नेताओं के लिए शर्मसार हैं। उन्होंने कानून को अपना काम करने दिया। उन्होंने अपने देश और अपने धर्म के प्रति गौरव का भाव ही प्रदर्शित किया। जॉर्ज बुश आज भी एक गौरवान्वित ईसाई बने हुए हैं।

जब से मनमोहन सिंह की ‘नियुक्ति’ प्रधानमन्त्री पद पर हुई है तब से देश के भीतर सत्तर से ज्यादा आतंकी हमलों की रिपोर्ट दर्ज की गयी है, जिनमें से प्रायः सभी इस्लामी संगठनों द्वारा ही अन्जाम दिए गये हैं। फिर भी इन्होंने कभी भी इसे ‘इस्लामी’ आतंकवाद की संज्ञा नहीं दी और ना ही इसके कारण कभी ‘शर्म’ महसूस किया। कदाचित् ऐसा सही भी है। लेकिन जब मालेगाँव में एक विस्फोट हुआ जिसमें कथित रूप से कुछ हिन्दू शामिल थे तो डॉ. सिंह ने अपनी सरकार को ‘हिन्दू आतंक’ जैसे शब्द को गढ़ने और प्रयोग करने की छूट फौरन दे दी। प्रधान मन्त्री जी ने मीडिया को खुलकर जज की भूमिका निभाने की छूट दे दी जिसने कानून को अपना काम करने देने के पहले ही आरोपित लोगों की परेड करानी शुरू कर दी।

एन्टोनियो अल्बीना मायनो सोनिया गान्धी इटली की नागरिक हैं। भारतीय कानून विदेशी धरती पर पैदा होने वाले व्यक्तियों को उच्च सरकारी पदों को धारण करने से वर्जित करता है। फिर भी आज यह सर्वविदित है कि भारतीय सत्ता की चाभी इन्ही सोनिया गान्धी के हाथों में है। क्या दुनिया में कोई अन्य देश भी है जहाँ किसी विदेशी नागरिक को देश का वास्तविक नेता बन जाने की अनुमति हो? यदि यह विडम्बना भी देश को शर्मसार नहीं करती है तो एक स्थानीय़ प्रकरण जो विशुद्ध रूप से हमारा आन्तरिक मामला है देश को शर्मसार क्यों करने लगा?

आतंकवादियों ने नवम्बर २००८ में मुम्बई पर हमला कर दिया। अब इस बात के सबूत मौजूद हैं कि भारत सरकार को इस प्रकार के सम्भावित हमले की खुफिया सूचना कुछ सप्ताह पहले ही मिल चुकी थी। फिर भी कोई निरोधात्मक कदम नहीं उठाये गये। हमले के बाद प्रधान मन्त्री जी ने बयान दिया कि एक भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। हमले के बाद इस बात के पुख्ता सबूत मिल चुके हैं कि हमले का श्रोत पाकिस्तान में है। यहा तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने स्पष्ट कहा है कि भारत को आतंकियों पर धावा बोलने का अधिकार है। इस घटना के चार महीने बीत जाने के बाद भारत की सरकार स्मृतिलोप और जनता के प्रति उदासीनता का शिकार हो गयी लगती है और एक भी गुनहगार को पकड़े बिना आत्ममुग्ध सी बैठी हुई है। क्या कोई बात इस निष्क्रियता से भी अधिक शर्मसार करने वाली हो सकती है? दुनिया में कौन होगा जो भारत को गम्भीरता से लेगा?

जब डॉ. मनमोहन सिंह २००४ में सत्तासीन हुए थे तो इनकी शैक्षिक योग्यताओं का पुलिन्दा खूब प्रचारित प्रसारित किया गया था जिसमें ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज की उपाधियों से लेकर अर्थशास्त्र में उत्कृष्टता के लिए प्राप्त पुरस्कारों की गौरवगाथा हुआ करती थी। लेकिन अब यह पूरी तरह सिद्ध हो गया है कि बड़ी से बड़ी विदेशी शिक्षा भी उस अभाव को पूरा नही कर सकती जो अपनी संस्कृति में रच-बसकर अपने देश और इसके लोगों के प्रति गौरव की भावना से ओत-प्रोत न होने और देश की सुरक्षा व सम्प्रभुता को बनाये रखने के प्रति मुखर होने की अक्षमता के रूप में विद्यमान है।

तो फिर कन्धमाल की हिंसा देश के लिए शर्म की बात क्यों हो गयी? इस घटना का कौनसा पक्ष देश के लिए शर्मनाक हुआ? क्या हिन्दुओं का ईसाइयों के विरुद्ध खड़े हो जाना शर्मनाक है? क्या अपने को हिन्दू या सिख कहे जाने से भयभीत मनमोहन सिंह जी अपने मन के भीतर इस हिंसा के लिए स्वयं को दोषी मानने लगे हैं? क्या डॉ. सिंह ईसाई सम्प्रदाय के लोगों की रक्षा करने के प्रति किसी दूसरे धर्म के लोगों की अपेक्षा प्रतिबद्ध महसूस करते हैं? क्या एक हिन्दू सन्त की हत्या जिससे इस हिंसा की शुरुआत हुई, देश के लिए उतने ही शर्म का विषय नहीं है? मनमोहन सिंह ने स्वामी लक्ष्मणानन्द की हत्या पर आहत होने का सार्वजनिक बयान क्यों नहीं दिया? क्या उन्होंने ऐसा इस डर से नहीं किया कि उन्हें ‘हिन्दू’ या उससे भी बुरा ‘हिन्दू मौलिकतावादी’ होने की संज्ञा दे दी जाएगी?

क्या उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि इसका सीधा अर्थ अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न मान लिया जाता। क्या डॉ. सिंह अपनी उस असमर्थता को छिपा रहे थे जिसके कारण वे यह तथ्य नहीं बता सकते थे कि हिन्दुओं और ईसाइयों के बीच का यह संघर्ष वर्षों से चले आ रहे ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्म परिवर्तन कराने के एक सुसंगठित और आक्रामक प्रयास का नतीजा है। मनमोहन सिंह को भारत के एक घरेलू मुद्दे पर सारकोजी साहब को जवाब देने की जरूरत ही क्यों महसूस हुई?

ऐसा क्यों है कि स्वामी लक्ष्मणानन्द की जघन्य हत्या को भुला दिया गया और उसके बाद की घटनाओं पर ही सारा ध्यान केन्द्रित किया गया? क्या धर्म-सम्प्रदाय से निरपेक्ष रहते हुए सभी प्रकार की हिंसा की जाँच समान तरीके से नहीं की जा सकती? क्या सरकार द्वारा स्वामी की हत्या और उससे उपजी हिंसा की जाँच समान दृष्टि से नहीं की जानी चाहिए?

किसको किसके ऊपर निश्चित शर्म करनी चाहिए? जो व्यक्ति अपने नागरिकों पर शर्म करे उसे आप क्या कहेंगे- नेता या दास? शर्म आदमी को बन्धन में डाल देती है। हमें ऐसा प्रधानमन्त्री नहीं चाहिए जो स्वयं शर्मसार हो, और अपनी इस शर्म को देश के दूसरे लोगों के ऊपर आरोपित करता रहे। मैं तो यह कहना चाहूंगा कि भारतीय नागरिकों को ऐसे प्रधानमन्त्री पर शर्म करनी चाहिए।

इसके बारे में एक बार फिर सोचिए। कुछ करने आ अवसर आया है। चुनाव नजदीक आ गये हैं। वे सभी जो ‘नेतृत्व’ का मूल्य समझते हैं और जो कानून के आगे सभी धर्मों और व्यक्तियों की समानता में विश्वास करते हैं उन्हें डॉ. मनमोहन सिंह को चुनावों में बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए।
-वेंकटरमण अम्मनगुडी

8 comments:

  1. हम शर्मनिरपेक्ष है.

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  2. भाई, मनमोहन जी वर्ल्ड बैंक से लेकर सोनिया आंटी तक सारी उमर गुलामी ही तो करते रहे हैं, अंग्रेजों के यहां जाकर अंग्रेजों के गुण गा आये

    गुलामी की आदत मुश्किल से जाती है, अभी राहुल के गुण गा रहे हैं

    देश का दुर्भाग्य हैं एसे लोग

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  3. कंधमाल और गुजरात सिर्फ़ यही दो शर्म के लायक घटनायें घटी हैं इस देश में पिछले 60 साल में… एक नज़र इस पर भी डालियेगा http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/08/kandhamal-national-shame-manmohan.html जहाँ हमने शर्मनिरपेक्षों के लिये "शर्म" के कुछ और कारण गिनाये हैं…

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  4. इन काग्रेसीयों के पास बोलने के लिये कुछ बचा नही है तभी तो 9 साल पहले की कंधार घटना पर घरीयाली आसू बहा रहें है

    ये सच्चे शर्मनिरपेक्ष है
    इन से तो भय हो

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  5. मनमोहन सिंह हो या कोई और, कॉंग्रेसी होने का मतलब ही होता है ग़ुलाम मानसिकता में जीने वाला शर्मनिरपेक्ष व्यक्ति. यह बात आज नहीं महात्मा गान्धी के ज़माने से चली आ रही है. लेकिन 6 दिसम्बर को पूरी तरह प्रायोजित करने पर उस पर शर्माने वालों में अटल बिहारी बाजपेयी भी शामिल थे. इस पर आप क्या सोचते हैं?

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  6. यह तो सतत चलेगा शर्माने का कार्यक्रम। शर्म का मूल उस व्यवस्था में है-
    जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है जहां बन्दे गिने जाते हैं, तोले नहीं जाते।

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  7. कांग्रेस मुझे रीढ़ रहित प्राणियों का समुदाय लगता है.

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  8. kya kahoo? mujhe to in dharm nirpeksha logo par hi sharm aati hai.supreme court ne hindu ko ek dharm nahi varan ek jeevan shaili mana.fir bhi hinduo ki baat karna sharm hai.is se bada durbhagya desh ke liye kya hoga.

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