Saturday, May 16, 2009

भारत में काफ़्काइयत बदस्तूर जारी रहेगी: फ़्रांस्वाँ गातिए ध्यान दें !

चेक उपन्यास्कार फ़्रैन्ज़ काफ़्का (Franz kafka, 1852-1931) ने अपने उपन्यासों The Trial ,The Castle, व The Metamorphosis में एक ऐसे विवेक भ्रष्ट समाज की रचना की है जहाँ सब कुछ नित्तांत बेतुका, अतार्किक, हास्यास्पद, खतरनाक और घोर अंधेरगर्दी के घटाटोप से अच्छादित दिखाई देता है। उनके उपन्यासों से जिस प्रकार के बेढंगे समाज का चित्र उभरता है, वह इतना बदनाम हुआ है कि व्यावहारिक दुनिया मे जहां ऐसे समाज दॄष्टिगोचर होते हैं उन्हें काफ्काई समाज [Kafkaesque/Kafkaian] की संज्ञा दे दी जाती है। ऐसी प्रतिगामी प्रवृत्तियों को काफ़्काइयत कहा जा सकता है।

 

फ़्रांस्वाँ गातिए (Francois Gautier) लम्बे समय से भारत में रहते हुए अनेक यूरोपीय पत्र-पत्रिकाओं के लिए काम किया है। दक्षिण एशियाई समाज और राजनीति के फ्रांसीसी विशेषज्ञ व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्टित पत्रकार फ़्रांस्वा गातिए ने अपने एक लेख मे यहां के वर्तमान राजनैतिक परिदॄश्य में काफ़्काई समाज की झलक देखते हुए लिखा है कि यहाँ की राजनीति में कई बाते इतनी बेतुकी हैं और ऐसे नाजायज निष्ठुर, उत्तेजनापूर्ण और अतार्किक स्तर को छूने लगी हैं कि दिमाग परेशान हो उठता है। फिर भी न तो यहाँ के राजनेता और न ही यहाँ का प्रेस इसमें कुछ गलत देख पाता है। कुछ उदाहरण देखिए:-

 

(१.)भारतीय जनता पार्टी के युवा नेता वरुण गान्धी को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत लगभग तीन सप्ताह जेल में सिर्फ़ इसलिए बिताना पड़ा क्योंकि उन्होंने कुछ ऐसा कह दिया था जो दोषपूर्ण था। जबकी बहुत से मुल्ला अपने जुम्मा की तक़रीर में आग और जहर उगलते रहते हैं, किन्तु कोई गिरफ़्तार नही किया जाता क्योंकि इससे तुरन्त दंगे भड़कने का अंदेशा होता है।

 

(२.)साध्वी प्रज्ञा नामक एक हिन्दू सन्यासी महीनों से जेल में यातना भुगत रही है जब कि अभी तक मालेगाँव धमाकों में उसकी संलिप्तता का एक भी विश्वसनीय सबूत जुटाया नहीं जा सका है। हाल ही मे उसके उपर मुम्बई जेल के भीतर एक मुसलमान कैदी ने हमला कर दिया जिसमे उनके मुँह, नाक और गले पर चोटे आयीं।

 

वहीं एक मुसलमान नेता अब्दुल नासिर मदनी है जो १९९८ के कोयम्बटूर दंगों के आरोपी थे। इसमें ६० निर्दोष लोगों की जान गई थी। न्याय प्रक्रिया की ढिलाई के चलते वे बरी हो गये और आजकल केरल में सी.पी.आई.(एम.) के साथ उनकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी चुनाव प्रचार कर रही है- है न यह काफ़्काइयत?

 

(३.) उड़ीसा के कंधमाल से भाजपा प्रत्याशी अशोक साहू को पुलिस ने इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने चर्च के उपर भोले-भाले आदिवासियों को जबरन ईसाई बनाने के लिए विदेशी धन के प्रयोग का आरोप लगाया था। जबकि यह सभी जानते है कि यह आरोप पूरी तरह पुष्ट तथ्यों पर आधारित होने के कारण सिद्ध हो चुका है।

 

वहीं दूसरी ओर आतंकी अजमल क़साब, जो मुम्बई में हत्या के अभियान पर निकला था, आजकल सरकारी खर्चे पर शाही जिन्दगी जी रहा है। उसके विरुद्ध तैयार आरोप पत्र के ११००० पन्नों को उर्दू में अनूदित किया जा रहा है क्योंकि इन सज्जन ने ऐसी इच्छा व्यक्त की है। यह काफ़्काइयत है कि नहीं?

 

(४.) भारत के राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम घोषित हो जाने से पहले अफ़जल गुरू को फाँसी पर लटकाने की अनुमति नही दे सकतीं। वही आतंकी सरगना जो १३ दिसम्बर २००१ को संसद पर हमले के मामले में दोषी ठहराया जा चुका है। फाँसी इसलिए टाली जा रही है क्योंकि इससे मुस्लिम वोट छिटक जाने का डर है। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस यह कहते नही थकती कि भारत के मुसलमान राष्ट्रभक्त है। लेकिन एक सिद्ध राष्ट्रद्रोही मुस्लमान को फाँसी देने पर सामान्य मुसलमानों का वोट खो देने का डर क्यों सताता है? आप फैसला कीजिए कि यह काफ़्काइयत है कि नही?

 

(५.) तमिल चीतों ने एक मूर्खतापूर्ण सोच के आधार पर राजीव गान्धी को अत्यन्त क्रूरता पूर्वक सिर्फ इसलिए उनके चीथड़े उड़ा दिये थे कि उनके दुबारा प्रधानमंत्री बन जाने का अंदेशा था। गान्धी परिवार के साथ-साथ यह देश के लिए भी एक त्रासदी थी। लेकिन आज, तमिलनाडु के वोटरों को रिझाने के लिए उन्हीं की विधवा सोनिया गान्धी ने श्रीलंका की सरकार के पास अपना विशेष दूत इस उद्देश्य से भेंजा ताकि वहाँ युद्धविराम लागू करने का दबाव बना सके; जबकि बीस साल से चल रहे खूनी संघर्ष के बाद वहाँ की सरकार अब खँखार तमिल चीतो का सफाया करने के द्वार पर खड़ी है। क्या यह बात कहीं से भी समझ में आने वाली है? क्या यह काफ़्काइयत नही है?

 

(६.) भारत में सबकी बराबरी और जाति से उपर उठने की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं। सम्विधान में इसकी स्पष्ट घोषणा है। लेकिन १९४७ से अबतक देश के राजनेताओं ने, खासकर कांग्रेस और बाद में इससे निकाले गये वी.पी.सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव आदि ने देश को जाति और धर्म के आधार पर बाँटने का निराशाजनक कृत्य ही किया है। लेकिन अब मायावती ने उन सबको पीछे छोड़ दिया है उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की अपने ख्वाहिश को पूरा करने के लिए १६ अन्य जातियों को भी अनुसूचित जाति मे शामिल करने का वादा कर दिया है। क्या वोट पाने के लिए इससे भी बड़ा क़ाफ़्काई तरीका आप सोच सकते है?

 

(७.) भारत मे चुनाव अभियान पर किसी को २५ लाख से अधिक खर्च करने की इज़ाजत नही है। लेकिन सबको यह पता है कि सांसद बनने के लिए दसियों करोड़ खर्च करने पड़ते है। आपको चुनावी अभियान को शानदार बनाने के लिए सैकड़ों कारों के काफिलों का प्रदर्शन करना है, निजी हवाई-जहाज और हेलीकाप्टर भाड़े पर लेना है, मुफ्त की साड़ियां-धोतियाँ, टेलीविजन और यहाँ तक की नगदी भी, और बहुत कुछ बाँटना है। आखिर इस सब के लिए यह कालाधन कहाँ से आता है? भ्रष्ट व्यापारियों से, माफिया से, दलाली से, और क्या? क्या इससे भी अधिक काफ़्काइयत की कल्पना की जा सकती है?

 

कुल मिलाकर भारत में लोकतंत्र पूरी तरह काफ़्काइयत का नमूना बनकर रह गया है क्योंकि यह इतना बिगड़ चुका है और गलत हाथों में अपहृत हो चुका है कि अब इसे पूरी तरह एब्सर्ड ही कहा जा सकता है।

 

इस बात में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि भारतीय प्रेस और मीडिया भी अपनी भूमिका नहीं निभा रहा है। क्योंकि मुख्यधारा के किसी भी अखबार या न्यूज चैनल ने आपत्ती नहीं उठायी जब वरुण गान्धी जेल में थे या जब मदनी सजा से छूट गये थे। और एक पार्टी में पूरा सहयोग और सम्मान पाते रहे।

 

वस्तुतः मुख्य समस्या यह है कि भारत लम्बे समय तक विदेशियों का गुलाम रहा है। वहीं चीन में ऐसा नहीं है। वहाँ के लोग अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव रखते हैं तथा घोर राष्ट्रवादी हैं। इसके उलट भारतीय मानस में यहाँ की गुलामी के इतिहास ने क हीनता ग्रन्थि का निर्माण किया है। यहाँ के कथित बुद्धिजीवी अपनी ही हर बात विश्वसनीय मानने से पहले पश्व्चिमी स्वीकृति और समर्थन के लिए उधर का मुँह ताकते हैं। भारत में पाश्चात्य शैली का लोकतन्त्र अपनाने (नकल करने ) का ऐसा विचित्र व्यामोह है कि उन्हें इसे भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ढालने की सुध ही नहीं रहती।

 

यहाँ का शासन तंत्र और समाज इतना दूषित हो चुका है कि अब बीमार हिस्से को एक बड़े ऑपरेशन द्वारा काट फेंकने का रास्ता बचा है। अब बड़े स्तर पर साफ-सफाई किया जाना अपरिहार्य हो गया है।

 

नोट: फ़्रांस्वाँ गातिए का यह लेख कुछ सप्ताह पहले आया था। आज इसे यहाँ प्रस्तुत करते समय नयी लोकसभा का स्वरूप सामने आ चुका है। जनता ने एक बार फिर उसी सरकार को चुना है जो पिछले पाँच साल तक इस काफ़्काइयत की पोषक रही थी। इस परिणाम ने बता दिया कि भारत के वोटर इस अन्धेरगर्दी में बने रहने को ही पसन्द करते हैं। शायद उनका मानना है कि इससे बेहतर विकल्प देश में मौजूद ही नहीं है।

फ़्राँन्ज़ काफ़्का अमर रहें!!!

मलय त्रिदेव

5 comments:

  1. मतदान के तरीकों के लिये भारत की जनता को कोसना अपने आप को धोखे में रखने जैसा है। यदि पांच वर्ष के लिए वह किसी पार्टी को मैनडेट देती है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पूरा देश ही काफकाइयत की शिकार है....बेशक एसा कहने वाला इनसान काफकायित का शिकार हो सकता है....जरूरी नहीं है कि आप जिस आर्दश की परिकल्पना कर रहे हैं, किसी देश की जनता उस आर्दश को आत्मसात करने के लिये तैयार ही रहे....भारत की जनता न तो संस्कृत समझती है और न ही ग्रीक....और बड़े –बड़े शब्दों का इस्तेमाल करके इसे हीन बताना अपनी दीमागी हीनता का प्रदर्शन करने जैसा है......बेहतर होगा जहां गलती हुई है, उस गलती की पहचान करना और उसे दूर करने के लिए ईमानदार विश्लेषण करना.....एसा न करना काफकाइयत होगा.......

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  2. मलय भाई!

    अगर इसे आप जनादेश मानते हैं तो कोई बात नहीं. लेकिन ज़रा सोचिए कि क्या इसे जनादेश माने जाने लायक है? 60% से ज़्यादा वोट यहां कभी नहीं पड़ता. उसमें भी 70 तक उम्मीदवार हो सकते हैं और उनमें भी कुछ न कुछ वोट तो सबके हिस्से में आएंगे ही. अब जो जीतता है उसके हिस्से में ज़्यादा से ज़्यादा 10-15 फ़ीसदी वोट आते हैं, आम तौर पर. मतलब यह कि कुल जनता का केवल 10-15 % वोट पाकर कोई हमारा प्रतिनिधित्व करता है. इसे आप जनादेश कहेंगे या भ्रमादेश? अगर वास्तव में यहां लोकतंत्र लाना है तो ज़ाहिर है कि पहले हमें इसकी बुनियादी शर्तें बदलनी पड़ेंगी. यह कौन सा लोकतंत्र है जहां एक परिवार के हाथ में पूरे देश की सत्ता की चाभी है. पूरे देश का जीवन उसकी दया पर निर्भर है. इससे बढ़िया मज़ाक और क्या हो सकता है कि आपको निगेटिव वोटिंग का हक़ दिया जाए, लेकिन उसका कोई अर्थ न हो? इन सवालों पर विचार करने की ज़रूरत है. जनता को गरियाने से कुछ नहीं होने वाला हो.

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  3. @बेहतर होगा जहां गलती हुई है, उस गलती की पहचान करना और उसे दूर करने के लिए ईमानदार विश्लेषण करना....

    आलोक जी,
    आपने बिलकुल ठीक कहा। लेकिन हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का ढिढोरा पीटते नहीं अघाते, जिसमें हम ऐसी व्यवस्था को ढो रहें हैं जिससे दस प्रतिशत मतदाता देश का भविष्य तय कर देते हैं। आखिर गलती को दूर करने से किसी डॉक्टर ने मना किया है आपको? देश भर के बुद्धिजीवी इस समय न्यूज चैनलों पर जुगाली कर रहे हैं। कुछ विशेषज्ञ पश्चिमी देशों से जो पढ़ कर आये हैं उसकी उल्टी कर रहें हैं। सुन कर बताइए न, यदि एक आदमी भी इस अन्धेरगर्दी के बारे में एक शब्द भी कह रहा हो। सभी वोटर की महानता और समझदारी भरे निर्णय का चारण गीत गा रहे हैं। यही है सबसे बड़ी काफ़्काइयत।

    अपने संविधान पर प्रश्नचिह्न लगाना अम्बेडकर की अवैध संतानों की दृष्टि में देशद्रोह से कम नहीं है इस देश में। FIRST PAST THE POST पद्धति से मतदान की प्रक्रिया हटाने के बारे में इन नेताओं से बात करके देखिए। आपको lynch कर देंगे सभी मिलकर।

    इष्टदेव जी,
    लोकतन्त्र के नाम पर ठगी हो रही है। देश के सभी बुद्धिजीवी इस हरामखोरी में सक्रिय रूप से लिप्त हैं। एक मुलायम , मायावती, लालू, देवेगौड़ा को हराकर क्या कर लेंगे जब उनका बेहतर replacement नहीं दे पाएंगे।

    अगर काम्ग्रेस हार ही जाती तो भाजपा क्या बेहतर साबित होती? वहाँ भी चोर उचक्के ही कुण्डली मारे बैठे हैं। राजनाथ, कलराज, जूदेव, टण्डन जैसे अजगर ही तो आडवाणी के मन्त्री बनते जो अपना लिजलिजा राष्ट्रवाद कई बार फींच चुके हैं। असली रंग कबका धुल गया है।

    उफ़्फ़।!!!।

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  4. गॉतिये बढ़िया लिखते हैं।

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  5. काफ्कायियत दर काफ्कायियत ! अफसोसनाक और शर्मनाक !

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