[राजकिशोर एक अनुभवी और कलम के धनी पत्रकार व साहित्यकार हैं। समाजवादी आन्दोलन उनके मन को हमेशा मथता रहा है। धरतीपुत्र माननीय मुलायम जी का लोहियावादी चेहरा अमर सिंह की कुत्सित राजनीति के रंग में इतना सराबोर हो गया है कि पहचानना मुश्किल है। वे अब फिल्मी तारिकाओं के चकमक सानिध्य में ही डूबे हुए हैं। राजकिशोर मुलायम की इस पतन-यात्रा पर प्रकाश डाल रहे हैं हिन्दी-भारत ब्लॉग पर।]
माना जाता है कि जो एक बार कम्युनिस्ट हो गया, वह जीवन भर के लिए कम्युनिस्ट हो गया। भारत के समाजवादियों के बारे में भी यह सच है। फर्क यह है कि कम्युनिस्ट चरित्र में धारावाहिकता होती है। वह उलटा-पुलटा बोलता भी है, तो अकेले नहीं -- अपनी पूरी बिरादरी के साथ। समाजवादी में यह गुण महीं पाया जाता। वह अनमे मूल विचारों का दमन करना जानता है। यही कारण है कि एक जमाने में राममनोहर लोहिया के अनुयायी इस समय अनेक दलों में पाए जाते हैं और कहीं भी कसमसाते दिखाई नहीं देते। मुलायम सिंह यादव ने दल तो नहीं बदला, वे अपने को ही बदलते रहे। इसीलिए कई प्रसंगों में वे उससे ज्यादा हँसी के पात्र नजर आते हैं जितने वे वास्तव में हैं।
सार्वजनिक जीवन में अग्रेजी के प्रयोग पर पाबंदी के पक्ष में मुलायम सिंह का चुनाव घोषणा पत्र एक ऐसा दस्तावेज है जो अपने आपमें तो सही है, पर उस पर धूल की इतनी परतें चढ़ चुकी हैं कि उसकी मूल भावना कहीं दिखाई नहीं देती। मुलायम सिंह जब पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब उनकी राजनीतिक चेतना आज की तुलना में कम प्रदूषित यानी बेहतर थी। तब उन्होंने अंग्रेजी के इस्तेमाल के प्रति अपना जो लोहियाई अनुराग दिखाया था, वह उनके तब के निकटवर्ती समाजवादी अतीत की प्रतिध्वनि और कुछ हद तक सुहावनी थी। कम से कम हम जैसे लोगों के लिए, जिनकी आंख लोहिया साहित्य पढ़ कर और लोहिया के भाषण सुन कर खुली थी।
उन दिनों मुलायम सिंह हिन्दी तथा अन्य लोक भाषाओं के प्रयोग पर जोर दे रहे थे। वे चाहते थे कि केंद्र उत्तर प्रदेश सरकार से हिन्दी में पत्र व्यवहार करे। उन्होंने अपनी यह इच्छा भी जताई थी कि गैर-हिन्दी भाषी राज्यों से उनकी सरकार उनकी भाषा में ही पत्र व्यवहार करेगी। यह एक क्रांतिकारी प्रस्ताव था। लोहिया का मानना था कि भारत में सत्ता हासिल करने के लिए इन तीनों में किन्हीं दो घटकों का योग आवश्यक है -- जाति, संपत्ति और अंग्रेजी। मुलायम सिंह ने जाति पर हमला किया। पर संपत्ति पर हमला करने में उनकी थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं थी। आज मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के अमीरतम नेताओं में हैं, जबकि लोहिया की मृत्यु के समय उनके पास कुछ हजार रुपए भी नहीं थे। मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने अपने दिवंगत राजनीतिक गुरु की स्मृति में अंग्रेजी पर धावा बोलने की कोशिश जरूर की, पर इस विस्फोट से जो बवाल पैदा हुआ, उससे वे खुद दहल गए और उन्होंने अपने इस प्रयोग को आगे बढ़ाने से हाथ खींच लिया। पर दूसरी आदतों की तरह समाजवादी आदतें भी जल्दी नहीं मरतीं। वर्तमान लोक सभा चुनाव के कोलाहल में अंग्रेजी विरोध का उनका भूत फिर जाग उठा है और देश के सारे बुद्धिजीवी उन पर हो-हो कर हँस रहे हैं।
इन बुद्धिजीवियों की संकीर्णता पर अफसोस होता है। ये बौद्धिक नहीं, बुद्धिकर्मी हैं। अगर इन्हें देश और समाज की सच्ची चिंता होती, तब भी ये मुलायम सिंह के अंग्रेजी विरोध पर हँसते। पर उस हँसी की अंतर्वस्तु कुछ और होती। तब वे कहते कि अंग्रेजी हटाने की बात तो सही है, क्योंकि अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रख कर और उस वर्चस्व को बढ़ाते हुए भारत का निर्माण नहीं किया जा सकता। देश के हर आदमी को अंग्रेजी में सिद्ध बनाने की कोशिश न केवल कभी सफल नहीं हो सकती, बल्कि ऐसी कोशिश देश के लिए अहितकर भी है। दुनिया भर में किसी भी देश ने पराई भाषा में विकास नहीं किया है। सच्चा विकास तो अपनी भाषा में ही होता है। इसके बाद वे बौद्धिक लोग मुलायम सिंह से पूछते कि सर, अन्य सभी नीतियों को यथावत रख कर आप अंग्रेजी के बहिष्कार के प्रयत्न में कैसे सफल हो सकते हैं? अंग्रेजी की विदाई तो समाजवाद की ओर कदम बढ़ाते हुए समाज में ही सकती है, पूंजीवादी व्यवस्था तो पूर्व-उपनिवेशों में उसी भाषा को आगे बढ़ाएगी जिस भाषा की गुलामी उन पर थोपी गई थी। भारत पर अगर जर्मन आधिपत्य होता, तो आज हमारा भद्रलोक अंग्रेजी नहीं, जर्मन बोलता होता। इसलिए भारत के सार्वजनिक जीवन, शिक्षा और संस्कृति में अंग्रेजी का बढ़ता हुआ उपयोग पूर्व गुलामी का ही नया संस्करण है। हर गुलामी विषमता से पैदा होती है और फिर बदले में विषमता को दृढ़ करती है। इसलिए अन्य विषमताओं को स्वीकार करते हुए सिर्फ एक विषमता से लोहा ले पाना असंभव है। मुलायम सिंह यही करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं, सो अंग्रेजी विरोध का उनका यह अभियान कभी सफल नहीं हो सकता।
असल में, मुलायम सिंह ने जब समाजवाद की दीक्षा ली थी, तब से आज के बीच दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। जूता लंबा होता गया है और मुलायम सिंह का पैर चौड़ा होता गया है। पहले उनके दोस्त और साथी साधारण लोग हुआ करते थे। आज वे अमर सिंह जैसी विभूतियों से घिरे हुए हैं। इसलिए तर्क की माँग तो यही है कि उन्हें अपनी फाइव स्टार चौकड़ी के राजनीतिक और समाजिक चरित्र के अनुसार ही बोलना चाहिए। छद्म ही करना हो, तो आडवाणी और राहुल की तरह करना चाहिए। तभी उनकी आवाज में प्रामाणिकता आएगी। तमाम तरह के पाखंडों के बीच अगर वे एक सच का उच्चारण करेंगे, तो मुसीबत में फँस जाएँगे। लंबे जूते में चौड़ा पैर नहीं समा सकता।
यह देख कर बहुत तकलीफ होती है कि भारत में भाषा का सवाल इस कदर उलझ और बिगड़ चुका है कि निकट भविष्य में उसका कोई संतोषजनक समाधान नहीं दिखाई देता। राष्ट्रभाषा की तो अब कोई जिक्र ही नहीं करता। यहां तक कि वे भी नहीं, जो अपने को राष्ट्रवाद का कट्टर प्रहरी बताते हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि राष्ट्रभाषा का सवाल जो उठाएगा, उसे पागल करार दिया जाएगा, जबकि असली पागल वे हैं जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में तो देखते हैं, पर उसकी कोई कॉमन भाषा हो, ताकि भारत के एक कोने की जनता दूसरे कोने की जनता से संवाद कर सके, इसका विरोध करते हैं। एक जमाने में सोचा जाता था कि अंतत: हिन्दी का विकास संपर्क भाषा के रूप में होगा। हिन्दी अभी भी गरीब और निम्न मध्य वर्ग के लोगों की संपर्क भाषा है। पर देश का शिष्ट वर्ग, जो असल में विशिष्ट वर्ग है, बड़ी तेजी से अंग्रेजी को अपना रहा है। देश रिक्शे की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, पर इस विशिष्ट वर्ग के सदस्य मोटरगाड़ी की रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं। आज कोई भी अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी की जानकारी अनिवार्य है। हालत ऐसी हो चुकी है कि आप अंग्रेजी नहीं जानते, तो आपको पहली नजर में मूर्ख या अविकसित मान लिया जाएगा।
भारतीय समाज का निर्णायक वर्ग अंग्रेजी को अपना दिलो-दिमाग दे चुका है। ऐसे माहौल में मुलायम सिंह अगर अंग्रेजी के विरोध में अपनी जबान फड़फड़ाते हैं, तो सभी वर्चस्वशाली लोग उन्हें जनता का दुश्मन करार देंगे। यही हो भी रहा है। यह इस बात का एक मजबूत उदाहरण है कि पॉप गाते-गाते अगर आप अचानक बिरहा की धुन छेड़ दें, तो क्या होगा।
- राजकिशोर