Tuesday, April 21, 2009

लंबे जूते में चौड़े पाँव... हिन्दी भारत में राजकिशोर जी का लेख

[राजकिशोर एक अनुभवी और कलम के धनी पत्रकार व साहित्यकार हैं। समाजवादी आन्दोलन उनके मन को हमेशा मथता रहा है। धरतीपुत्र माननीय मुलायम जी का लोहियावादी चेहरा अमर सिंह की कुत्सित राजनीति के रंग में इतना सराबोर हो गया है कि पहचानना मुश्किल है। वे अब फिल्मी तारिकाओं के चकमक सानिध्य में ही डूबे हुए हैं। राजकिशोर  मुलायम की इस पतन-यात्रा पर प्रकाश डाल रहे हैं हिन्दी-भारत ब्लॉग पर।]


माना जाता है कि जो एक बार कम्युनिस्ट हो गया, वह जीवन भर के लिए कम्युनिस्ट हो गया। भारत के समाजवादियों के बारे में भी यह सच है। फर्क यह है कि कम्युनिस्ट चरित्र में धारावाहिकता होती है। वह उलटा-पुलटा बोलता भी है, तो अकेले नहीं -- अपनी पूरी बिरादरी के साथ। समाजवादी में यह गुण महीं पाया जाता। वह अनमे मूल विचारों का दमन करना जानता है। यही कारण है कि एक जमाने में राममनोहर लोहिया के अनुयायी इस समय अनेक दलों में पाए जाते हैं और कहीं भी कसमसाते दिखाई नहीं देते। मुलायम सिंह यादव ने दल तो नहीं बदला, वे अपने को ही बदलते रहे। इसीलिए कई प्रसंगों में वे उससे ज्यादा हँसी के पात्र नजर आते हैं जितने वे वास्तव में हैं।


सार्वजनिक जीवन में अग्रेजी के प्रयोग पर पाबंदी के पक्ष में मुलायम सिंह का चुनाव घोषणा पत्र एक ऐसा दस्तावेज है जो अपने आपमें तो सही है, पर उस पर धूल की इतनी परतें चढ़ चुकी हैं कि उसकी मूल भावना कहीं दिखाई नहीं देती। मुलायम सिंह जब पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब उनकी राजनीतिक चेतना आज की तुलना में कम प्रदूषित यानी बेहतर थी। तब उन्होंने अंग्रेजी के इस्तेमाल के प्रति अपना जो लोहियाई अनुराग दिखाया था, वह उनके तब के निकटवर्ती समाजवादी अतीत की प्रतिध्वनि और कुछ हद तक सुहावनी थी। कम से कम हम जैसे लोगों के लिए, जिनकी आंख लोहिया साहित्य पढ़ कर और लोहिया के भाषण सुन कर खुली थी।

 
उन दिनों मुलायम सिंह हिन्दी तथा अन्य लोक भाषाओं के प्रयोग पर जोर दे रहे थे। वे चाहते थे कि केंद्र उत्तर प्रदेश सरकार से हिन्दी में पत्र व्यवहार करे। उन्होंने अपनी यह इच्छा भी जताई थी कि गैर-हिन्दी भाषी राज्यों से उनकी सरकार उनकी भाषा में ही पत्र व्यवहार करेगी। यह एक क्रांतिकारी प्रस्ताव था। लोहिया का मानना था कि भारत में सत्ता हासिल करने के लिए इन तीनों में किन्हीं दो घटकों का योग आवश्यक है -- जाति, संपत्ति और अंग्रेजी। मुलायम सिंह ने जाति पर हमला किया। पर संपत्ति पर हमला करने में उनकी थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं थी। आज मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के अमीरतम नेताओं में हैं, जबकि लोहिया की मृत्यु के समय उनके पास कुछ हजार रुपए भी नहीं थे। मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने अपने दिवंगत राजनीतिक गुरु की स्मृति में अंग्रेजी पर धावा बोलने की कोशिश जरूर की, पर इस विस्फोट से जो बवाल पैदा हुआ, उससे वे खुद दहल गए और उन्होंने अपने इस प्रयोग को आगे बढ़ाने से हाथ खींच लिया। पर दूसरी आदतों की तरह समाजवादी आदतें भी जल्दी नहीं मरतीं। वर्तमान लोक सभा चुनाव के कोलाहल में अंग्रेजी विरोध का उनका भूत फिर जाग उठा है और देश के सारे बुद्धिजीवी उन पर हो-हो कर हँस रहे हैं।


इन बुद्धिजीवियों की संकीर्णता पर अफसोस होता है। ये बौद्धिक नहीं, बुद्धिकर्मी हैं। अगर इन्हें देश और समाज की सच्ची चिंता होती, तब भी ये मुलायम सिंह के अंग्रेजी विरोध पर हँसते। पर उस हँसी की अंतर्वस्तु कुछ और होती। तब वे कहते कि अंग्रेजी हटाने की बात तो सही है, क्योंकि अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रख कर और उस वर्चस्व को बढ़ाते हुए भारत का निर्माण नहीं किया जा सकता। देश के हर आदमी को अंग्रेजी में सिद्ध बनाने की कोशिश न केवल कभी सफल नहीं हो सकती, बल्कि ऐसी कोशिश देश के लिए अहितकर भी है। दुनिया भर में किसी भी देश ने पराई भाषा में विकास नहीं किया है। सच्चा विकास तो अपनी भाषा में ही होता है। इसके बाद वे बौद्धिक लोग मुलायम सिंह से पूछते कि सर, अन्य सभी नीतियों को यथावत रख कर आप अंग्रेजी के बहिष्कार के प्रयत्न में कैसे सफल हो सकते हैं? अंग्रेजी की विदाई तो समाजवाद की ओर कदम बढ़ाते हुए समाज में ही सकती है, पूंजीवादी व्यवस्था तो पूर्व-उपनिवेशों में उसी भाषा को आगे बढ़ाएगी जिस भाषा की गुलामी उन पर थोपी गई थी। भारत पर अगर जर्मन आधिपत्य होता, तो आज हमारा भद्रलोक अंग्रेजी नहीं, जर्मन बोलता होता। इसलिए भारत के सार्वजनिक जीवन, शिक्षा और संस्कृति में अंग्रेजी का बढ़ता हुआ उपयोग पूर्व गुलामी का ही नया संस्करण है। हर गुलामी विषमता से पैदा होती है और फिर बदले में विषमता को दृढ़ करती है। इसलिए अन्य विषमताओं को स्वीकार करते हुए सिर्फ एक विषमता से लोहा ले पाना असंभव है। मुलायम सिंह यही करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं, सो अंग्रेजी विरोध का उनका यह अभियान कभी सफल नहीं हो सकता।


असल में, मुलायम सिंह ने जब समाजवाद की दीक्षा ली थी, तब से आज के बीच दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है। जूता लंबा होता गया है और मुलायम सिंह का पैर चौड़ा होता गया है। पहले उनके दोस्त और साथी साधारण लोग हुआ करते थे। आज वे अमर सिंह जैसी विभूतियों से घिरे हुए हैं। इसलिए तर्क की माँग तो यही है कि उन्हें अपनी फाइव स्टार चौकड़ी के राजनीतिक और समाजिक चरित्र के अनुसार ही बोलना चाहिए। छद्म ही करना हो, तो आडवाणी और राहुल की तरह करना चाहिए। तभी उनकी आवाज में प्रामाणिकता आएगी। तमाम तरह के पाखंडों के बीच अगर वे एक सच का उच्चारण करेंगे, तो मुसीबत में फँस जाएँगे। लंबे जूते में चौड़ा पैर नहीं समा सकता।

 
यह देख कर बहुत तकलीफ होती है कि भारत में भाषा का सवाल इस कदर उलझ और बिगड़ चुका है कि निकट भविष्य में उसका कोई संतोषजनक समाधान नहीं दिखाई देता। राष्ट्रभाषा की तो अब कोई जिक्र ही नहीं करता। यहां तक कि वे भी नहीं, जो अपने को राष्ट्रवाद का कट्टर प्रहरी बताते हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि राष्ट्रभाषा का सवाल जो उठाएगा, उसे पागल करार दिया जाएगा, जबकि असली पागल वे हैं जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में तो देखते हैं, पर उसकी कोई कॉमन भाषा हो, ताकि भारत के एक कोने की जनता दूसरे कोने की जनता से संवाद कर सके, इसका विरोध करते हैं। एक जमाने में सोचा जाता था कि अंतत: हिन्दी का विकास संपर्क भाषा के रूप में होगा। हिन्दी अभी भी गरीब और निम्न मध्य वर्ग के लोगों की संपर्क भाषा है। पर देश का शिष्ट वर्ग, जो असल में विशिष्ट वर्ग है, बड़ी तेजी से अंग्रेजी को अपना रहा है। देश रिक्शे की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, पर इस विशिष्ट वर्ग के सदस्य मोटरगाड़ी की रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं। आज कोई भी अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी की जानकारी अनिवार्य है। हालत ऐसी हो चुकी है कि आप अंग्रेजी नहीं जानते, तो आपको पहली नजर में मूर्ख या अविकसित मान लिया जाएगा।

भारतीय समाज का निर्णायक वर्ग अंग्रेजी को अपना दिलो-दिमाग दे चुका है। ऐसे माहौल में मुलायम सिंह अगर अंग्रेजी के विरोध में अपनी जबान फड़फड़ाते हैं, तो सभी वर्चस्वशाली लोग उन्हें जनता का दुश्मन करार देंगे। यही हो भी रहा है। यह इस बात का एक मजबूत उदाहरण है कि पॉप गाते-गाते अगर आप अचानक बिरहा की धुन छेड़ दें, तो क्या होगा।

- राजकिशोर

Tuesday, April 14, 2009

मा. प्रधानमन्त्री जी, बताइए न…! कौन किसपर शर्म करे?

यह आलेख ‘वेंकटरमण अम्मनगुडी’ ने मूलतः अंग्रेजी में लिखा था। चुनावी माहौल में इसे अनूदित करके यहाँ पोस्ट करने का उद्देश्य बस इतना है कि वोट डालने से पहले आप जो विचार मन्थन कर रहे होंगे उसमें शायद यह कुछ मदद करे। सादर! (मलय)

[लेखक परिचय: पेशे से इन्जीनियर वेंकटरमण अम्मनगुडी हिन्दू धर्म और दूसरे मुख्य पन्थों के बीच समानता और असमानता को समझने के लिए समर्पित हैं। साथ ही अंग्रेजी गुलामी का भारतीय मानस पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन में भी इनकी गहरी रुचि है। पढ़े लिखे हिन्दुओं में अपनी परम्पराओं के प्रति गौरव की स्वस्थ भावना की कमी और निष्क्रियता का भाव तथा दूसरे धार्मिक विश्वासों के प्रति तुष्टिकरण की प्रवृत्ति का विश्लेषण कर इसके निरोधात्मक उपायों की खोज करना इनकी विशेषता है।]


मा. प्रधानमन्त्री जी, बताइए न…! कौन किसपर शर्म करे?
उड़ीसा के कन्धमाल जिले में २३ अगस्त, २००८ को स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या उनके आश्रम में कर दी गयी। आश्रम के कुछ और निवासियों और औरतों की हत्या भी इस हमले में हुई थी। इस क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ काफी सक्रिय रही हैं लेकिन इस बीच उन्हें हिन्दुओं का ‘धर्म परिवर्तन कराने में कठिनाई’ होने लगी थी। यह तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है कि ऐसे बर्बर कृत्य के पीछे ईसाई मिशनरियों का ही हाथ था।

इसके करीब एक माह बाद, २९ सितम्बर २००९ को प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने मार्सेई में युरोपीय समुदाय और भारत के शिखर सम्मेलन के अवसर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को सम्बोधित किया। राष्ट्रपति सारकोज़ी ने आपसी बात-चीत में ‘कन्धमाल के ईसाइयों पर हो रहे हमलों’ की चर्चा की तो हमारे प्रधानमन्त्री जी ने फरमाया कि ऐसी घटनाएं देश के लिए शर्मिन्दगी का कारण बनती हैं।

शर्म: शर्म किसको? किस चीज से?

जब कश्मीरी पण्डितों पर आए दिन हमले होते रहे हैं और इस्लामी आतम्कियों द्वारा उनकी हत्या की जाती रही है, तो आजतक किसी ने यह नहीं कहा कि इन घटनाओं ने देश को शर्मसार किया है। बंगलौर स्थित विज्ञान संस्थान के परिसर में आतंकियों द्वारा वैज्ञानिकों की हत्या ने भी देश को शर्मसार नहीं किया। तमिलनाडु में घटिया निर्माण सामग्री से तैयार स्कूल भवन के गिर जाने से उसमें दबकर मासूम बच्चों के मर जाने से भी देश शर्मसार नहीं हुआ। यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से निकली जहरीली गैस से ६००० लोगों की मृत्यु से भी कोई शर्म नहीं आयी। देश के पूर्वी भागों में नक्सलियों के हाथों लगातार मारे जा रहे पुलिसवालों के लिए भी देश में कोई शर्म नहीं आयी। जब मीडिया और सरकार द्वारा हिन्दू देवी देवताओं का अनादर किया जाता है और मजाक उड़ाया जाता है तो भी देश शर्मसार नहीं होता। तो फिर डॉ. मनमोहन सिंह जी बताइए, कन्धमाल की इन घटनाओं से देश शर्मिन्दा क्यों होने लगा? यह प्रश्न मेरे दिमाग में लगातार उमड़-घुमड़ रहा है।

कुछ साल पहले की बात है, पूरे अमेरिका में बच्चों के यौन शोषण की दिल दहला देने वाली घटनाओं के लिए ईसाई चर्च पर आरोप लगे थे। जब जार्ज बुश ने इस बात की चर्चा की तो उन्होंने यह नहीं कहा कि वे चर्च और इसके नेताओं के लिए शर्मसार हैं। उन्होंने कानून को अपना काम करने दिया। उन्होंने अपने देश और अपने धर्म के प्रति गौरव का भाव ही प्रदर्शित किया। जॉर्ज बुश आज भी एक गौरवान्वित ईसाई बने हुए हैं।

जब से मनमोहन सिंह की ‘नियुक्ति’ प्रधानमन्त्री पद पर हुई है तब से देश के भीतर सत्तर से ज्यादा आतंकी हमलों की रिपोर्ट दर्ज की गयी है, जिनमें से प्रायः सभी इस्लामी संगठनों द्वारा ही अन्जाम दिए गये हैं। फिर भी इन्होंने कभी भी इसे ‘इस्लामी’ आतंकवाद की संज्ञा नहीं दी और ना ही इसके कारण कभी ‘शर्म’ महसूस किया। कदाचित् ऐसा सही भी है। लेकिन जब मालेगाँव में एक विस्फोट हुआ जिसमें कथित रूप से कुछ हिन्दू शामिल थे तो डॉ. सिंह ने अपनी सरकार को ‘हिन्दू आतंक’ जैसे शब्द को गढ़ने और प्रयोग करने की छूट फौरन दे दी। प्रधान मन्त्री जी ने मीडिया को खुलकर जज की भूमिका निभाने की छूट दे दी जिसने कानून को अपना काम करने देने के पहले ही आरोपित लोगों की परेड करानी शुरू कर दी।

एन्टोनियो अल्बीना मायनो सोनिया गान्धी इटली की नागरिक हैं। भारतीय कानून विदेशी धरती पर पैदा होने वाले व्यक्तियों को उच्च सरकारी पदों को धारण करने से वर्जित करता है। फिर भी आज यह सर्वविदित है कि भारतीय सत्ता की चाभी इन्ही सोनिया गान्धी के हाथों में है। क्या दुनिया में कोई अन्य देश भी है जहाँ किसी विदेशी नागरिक को देश का वास्तविक नेता बन जाने की अनुमति हो? यदि यह विडम्बना भी देश को शर्मसार नहीं करती है तो एक स्थानीय़ प्रकरण जो विशुद्ध रूप से हमारा आन्तरिक मामला है देश को शर्मसार क्यों करने लगा?

आतंकवादियों ने नवम्बर २००८ में मुम्बई पर हमला कर दिया। अब इस बात के सबूत मौजूद हैं कि भारत सरकार को इस प्रकार के सम्भावित हमले की खुफिया सूचना कुछ सप्ताह पहले ही मिल चुकी थी। फिर भी कोई निरोधात्मक कदम नहीं उठाये गये। हमले के बाद प्रधान मन्त्री जी ने बयान दिया कि एक भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। हमले के बाद इस बात के पुख्ता सबूत मिल चुके हैं कि हमले का श्रोत पाकिस्तान में है। यहा तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने स्पष्ट कहा है कि भारत को आतंकियों पर धावा बोलने का अधिकार है। इस घटना के चार महीने बीत जाने के बाद भारत की सरकार स्मृतिलोप और जनता के प्रति उदासीनता का शिकार हो गयी लगती है और एक भी गुनहगार को पकड़े बिना आत्ममुग्ध सी बैठी हुई है। क्या कोई बात इस निष्क्रियता से भी अधिक शर्मसार करने वाली हो सकती है? दुनिया में कौन होगा जो भारत को गम्भीरता से लेगा?

जब डॉ. मनमोहन सिंह २००४ में सत्तासीन हुए थे तो इनकी शैक्षिक योग्यताओं का पुलिन्दा खूब प्रचारित प्रसारित किया गया था जिसमें ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज की उपाधियों से लेकर अर्थशास्त्र में उत्कृष्टता के लिए प्राप्त पुरस्कारों की गौरवगाथा हुआ करती थी। लेकिन अब यह पूरी तरह सिद्ध हो गया है कि बड़ी से बड़ी विदेशी शिक्षा भी उस अभाव को पूरा नही कर सकती जो अपनी संस्कृति में रच-बसकर अपने देश और इसके लोगों के प्रति गौरव की भावना से ओत-प्रोत न होने और देश की सुरक्षा व सम्प्रभुता को बनाये रखने के प्रति मुखर होने की अक्षमता के रूप में विद्यमान है।

तो फिर कन्धमाल की हिंसा देश के लिए शर्म की बात क्यों हो गयी? इस घटना का कौनसा पक्ष देश के लिए शर्मनाक हुआ? क्या हिन्दुओं का ईसाइयों के विरुद्ध खड़े हो जाना शर्मनाक है? क्या अपने को हिन्दू या सिख कहे जाने से भयभीत मनमोहन सिंह जी अपने मन के भीतर इस हिंसा के लिए स्वयं को दोषी मानने लगे हैं? क्या डॉ. सिंह ईसाई सम्प्रदाय के लोगों की रक्षा करने के प्रति किसी दूसरे धर्म के लोगों की अपेक्षा प्रतिबद्ध महसूस करते हैं? क्या एक हिन्दू सन्त की हत्या जिससे इस हिंसा की शुरुआत हुई, देश के लिए उतने ही शर्म का विषय नहीं है? मनमोहन सिंह ने स्वामी लक्ष्मणानन्द की हत्या पर आहत होने का सार्वजनिक बयान क्यों नहीं दिया? क्या उन्होंने ऐसा इस डर से नहीं किया कि उन्हें ‘हिन्दू’ या उससे भी बुरा ‘हिन्दू मौलिकतावादी’ होने की संज्ञा दे दी जाएगी?

क्या उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि इसका सीधा अर्थ अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न मान लिया जाता। क्या डॉ. सिंह अपनी उस असमर्थता को छिपा रहे थे जिसके कारण वे यह तथ्य नहीं बता सकते थे कि हिन्दुओं और ईसाइयों के बीच का यह संघर्ष वर्षों से चले आ रहे ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्म परिवर्तन कराने के एक सुसंगठित और आक्रामक प्रयास का नतीजा है। मनमोहन सिंह को भारत के एक घरेलू मुद्दे पर सारकोजी साहब को जवाब देने की जरूरत ही क्यों महसूस हुई?

ऐसा क्यों है कि स्वामी लक्ष्मणानन्द की जघन्य हत्या को भुला दिया गया और उसके बाद की घटनाओं पर ही सारा ध्यान केन्द्रित किया गया? क्या धर्म-सम्प्रदाय से निरपेक्ष रहते हुए सभी प्रकार की हिंसा की जाँच समान तरीके से नहीं की जा सकती? क्या सरकार द्वारा स्वामी की हत्या और उससे उपजी हिंसा की जाँच समान दृष्टि से नहीं की जानी चाहिए?

किसको किसके ऊपर निश्चित शर्म करनी चाहिए? जो व्यक्ति अपने नागरिकों पर शर्म करे उसे आप क्या कहेंगे- नेता या दास? शर्म आदमी को बन्धन में डाल देती है। हमें ऐसा प्रधानमन्त्री नहीं चाहिए जो स्वयं शर्मसार हो, और अपनी इस शर्म को देश के दूसरे लोगों के ऊपर आरोपित करता रहे। मैं तो यह कहना चाहूंगा कि भारतीय नागरिकों को ऐसे प्रधानमन्त्री पर शर्म करनी चाहिए।

इसके बारे में एक बार फिर सोचिए। कुछ करने आ अवसर आया है। चुनाव नजदीक आ गये हैं। वे सभी जो ‘नेतृत्व’ का मूल्य समझते हैं और जो कानून के आगे सभी धर्मों और व्यक्तियों की समानता में विश्वास करते हैं उन्हें डॉ. मनमोहन सिंह को चुनावों में बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए।
-वेंकटरमण अम्मनगुडी

Tuesday, April 7, 2009

दलित विमर्श चालू आहे...।

लावण्या शाह मुम्बई फिल्म जगत के शीर्ष पुरुष पं. नरेन्द्र शर्मा जी की बेटी हैं। उन्होंने पिछले दिनों अपने ब्लॉग पर एक दलित जाति की विमान परिचारिका के बारे में प्रशंसात्मक पोस्ट लिखी थी। लेकिन किसी नीलोफ़र ने अपनी टिप्पणी में उन्हें यह याद दिला कर आहत कर दिया कि उनकी माँ भी भंगी जाति की थीं। अपनी आहत भावना को प्रकट करके लावण्या जी एक आफ़त मोल ले ली। दलित विमर्श के महारथी मसिजीवी ने एक पोस्ट लिखकर उनके आहत होने पर आपत्ति उठायी।

मसिजीवी जी के अनुसार उनकी पूरी पोस्‍ट केवल उस उच्‍चकुलताबोध की ओर संकेत भर करने के लिए ही थी जो हम कथित सवर्णों में त्‍वचा पर हल्‍की सी खरोंच पड़ते ही उभर आता है। इस उच्‍चता बोध की सजा हमें अपमानित करके दी जानी चाहिए या नही ये दलित चिंतन इतिहास की अपनी रेख में तय करेगा/कर रहा है। कुल मिलाकर मैं केवल इसी ओर इंगित कर रहा था कि जिस एक संबोधन से हम झट आहत हो अपनी बाम्‍हनपन या ठकुराई के तमगे दिखाने लगते हैं वह कितनों ही की पीढि़यों का सच रहा है।

मामला बदसूरती की ओर बढ़ता देखकर लावण्या जी ने अपनी पोस्ट ही डिलीट कर दी। गीत संगीत और कविता की शौकीन शान्तिप्रिय लावन्या जी बेचारी लफ़ड़े में क्यों फ़ँसतीं? हम सबने अपनी-अपनी शैली में टिप्पणिया भी की थीं।

इस मसले को बीते काफी दिन हो चले थे लेकिन आभा जी ने अपना घर पर मसिजीवी जी को आड़े हाथों लेते हुए उनके तर्कों का खण्डन करता हुआ आलेख प्रकाशित किया है। अब चर्चा एक बार फिर जोर पकड़ रही है। लेकिन लावण्या जी को जब अनूप शुक्ल ने यह बताया कि कोई सामग्री डिलीट नहीं हुई है तो वे एक बार फिर से दुखी हो गयी हैं।

मेरा मानना है कि इस सारे मसले से कुछ अच्छी बात ही हुई है। हमारी भाषा में कुछ जातिसूचक शब्द इस प्रकार से घुलमिल गये हैं कि बदले सामाजिक परिवेश में वे कभी कभी संकट पैदा कर देते हैं। यदि हम इस बदली तस्वीर के प्रति जागरुक नहीं रहे तो ऐसे ही करुण दृश्य उपस्थित होते रहेंगे। इस मामले पर मेरा अपना विश्लेषण कुछ यूँ है:

मेरे ख़याल से इस प्रकरण में हमें थोड़े ठण्डे दिमाग से सोचने की जरूरत है। चमार, भंगी इत्यादि होने और कहलाने में बड़ा फर्क है। इन शब्दों के प्रयोग में जो रूढ़ता आ गयी है उसे समझे बगैर हम एक सर्व सम्मत निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाएंगे।

दर असल ‘चमार’ शब्द का प्रयोग अब सिर्फ़ एक जाति के लिए ही नहीं होता बल्कि भाषा में यह एक जीवन शैली का अर्थ भी देता है। सवर्णों के बीच भी किसी के घटिया व्यवहार के लिए ‘चमारपन’ का विशेषण प्रयुक्त होता है। यहाँ चमार का मतलब गन्दा, असभ्य, बदतमीज, दुष्ट, अधम, फूहड़, घिनौना, संस्कारहीन, स्वाभिमानविहीन, निर्लज्ज, और मूर्ख कुछ भी हो सकता है।

कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर भंगी या मेहतर होते थे जिनका पेशा झाड़ू लगाना और सिर पर मैला ढोना होता था। ऐसे लोग गन्दगी के पर्याय होते थे। बड़ा ही तुच्छ समझा जाता था इन्हें। इनसे थोड़ा ऊपर चर्मकारी का पेशा था जो मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने से लेकर उनका संस्कार करके चमड़े के जूते और दूसरे सामान तैयार करते थे। यही चमार (चर्मकार) कहलाते थे। मोचीगिरी इनका ही पेशा था। इन्हें समाज में जैसा स्थान प्राप्त था, और जैसी छवि थी उसी के अनुरूप इनके जातिसूचक शब्दों से भाषा में मुहावरे और विशेषण बन गये।

आज के आधुनिक समाज में अब जाति आधारित कामों के बँटवारे को समाप्तप्राय किया जा चुका है। अभी उत्तर प्रदेश सरकार ने ग्राम पंचायतों के लिए लाखों सफाई कर्मियों की भर्ती की है जिनमें बेरोजगारी से पीड़ित सभी जातियों के लड़कों ने पैसा खर्च करके स्वेच्छा से स्वच्छकार की नौकरी चुनी है।

सामाजिक दूरियाँ सिमट रही हैं। लेकिन भाषायी रूढ़ियों को इतनी आसानी से नहीं बदला जा सकता। किसी को ‘चमार’ कहना इसीलिए आहत करता है कि उसका आशय आजके समता मूलक समाज में पल रहे एक जाति विशेष के सदस्य से नहीं है बल्कि ऐसे अवगुणों से युक्त होना है जो आज का चमार जाति का व्यक्ति भी धारण करना नहीं चाहेगा। कदाचित्‌ इसी गड़बड़ से बचने के लिए सरकारी विधान में जाति सूचक शब्दों के प्रयोग पर रोक लग चुकी है।

लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के नाम पर अपने को ‘चमार’ कहे जाने का लिखित प्रमाणपत्र मढ़वाकर रखा जाता है। अपने को चमार बताकर पीढ़ी दर पीढ़ी उच्चस्तर की नौकरियाँ बिना पर्याप्त योग्यता के झपट लेने वाले भी समाज में चमार कहे जाने पर लाल-पीला हो जाते हैं।

किसी सवर्ण को जहाँ-तहाँ बेइज्जत करने का कोई मौका नहीं चूकते। अपनी इस कूंठा को खुलेआम व्यक्त करते हैं और दलित उत्पीड़न का झूठा मुकदमा ठोंक देने की धमकी देकर ब्लैक मेल करने पर इस लिए उतारू हो जाते हैं कि उसके बाप-दादों ने इनके बाप-दादों से मैला धुलवाया था।

आज सत्ता और सुविधा पाने के बाद ये जितनी जघन्यता से जातिवाद का डंका पीट रहे हैं उतना शायद इतिहास ने कभी न देखा हो।

तो भाई मसिजीवी जी, इस दोगलेपन का यही कारण है कि `चमार जाति' और `चमार विशेषण' का अन्तर इस शब्द के प्रयोग के समय अक्सर आपस में गड्ड-मड्ड हो जाता है।

लावण्या जी का आहत होना स्वाभाविक है। नीलोफ़र का असभ्य भाषा का प्रयोग निन्दनीय। और आभा जी की कटुक्तियाँ इसी धारणा पर चोट करती हैं।

आधुनिक समाज में सफाई और सैनिटेशन का काम मशीनों और दूसरे उद्योगपतियों ने भी सम्हाल लिए हैं। लेकिन इन विशेषणों से छुटकारा मिलने में अभी वक्त लगेगा। एक सभ्य आदमी को इसके प्रयोग से बचना चाहिए।

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Saturday, April 4, 2009

कलाम जी फरमाते हैं... कोई सुनता क्यों नहीं? :(

इण्डियन एक्सप्रेस में भारत रत्न कलाम जी का एक बयान छपा है। यह कि राजनैतिक पार्टियों को अच्छे, समझदार, ईमानदार, सत्यनिष्ठ, जनसेवक, जानकार, आदि-आदि गुणों से विभूषित उम्मीदवारों को चुनाव में उतारना चाहिए। पहले मुख्य बातें पढ़ डालिए:


Most of India's lawmakers are ill-informed and unsure of their objectives which hampers the nation's progress. Political parties should field candidates who have "integrity" and can deliver on development.

Political parties must place the nation above everything else and nominate people who can "work and succeed with integrity" in the elections.

"All the political parties should keep in their mind ... that the nation is bigger than the party or any individual,"

When they nominate members they must keep a motto they should select people who work with integrity and succeed with integrity, not those with a criminal background.

Candidates usually do not know what they want to do and even do not have much idea about their own constituencies.

It hampers India's progress if the candidates don't know more about the constituency.

Political parties should have a "vision" for the nation and not be concerned about the growth of themselves only.

Nation is bigger than the party. First and foremost, all the parties should consider nation bigger than party. They should work for the development of the country.

But it is a pity that they have a vision (only about) how to grow the party.

The candidates or lawmakers should update themselves with details about their constituencies like the per-capita income of the area, literacy level, number of water bodies, core competence of the seat and the infant mortality rate.

This is real politics. I call this developmental politics. Politics parties should get to know from the to-be-elected members what they will do for their constituencies.

If all these happen, then we are decentralising everything. If the MP knows all details about his area, he can shout in the parliament and ask for more funds and so on.

Varun Gandhi's hate speech should not frighten us as hate element has been used since the days of epic.

Such tactics can be countered by education and empowerment of people. What we need is education and empowerment. You educate people and they will know what is right and wrong. We should give an all out effort for creating a "youth movement".

People have to decide what is wrong and what is right. After all, vote is with them. So, we must remove ignorance and increase education and empowerment. The lower the poverty, the difference in the society can be reduced. Nobody can be taken for a ride. People will start thinking if they are educated.

Source: IndianExpress.com



अब सवाल उठता है कि हमारे देश के इस निष्कलुष राष्ट्र गौरव की बात पर ये राजनेता कितना कान धरेंगे। जिन नेताओं ने इस भारत निर्माता वैज्ञानिक विभूति के ऊपर कांग्रेस पार्टी की एक तीसरे दर्जे की नेत्री, एक इन्दिरा सेविका को तरजीह दी उससे क्या उम्मीद करते हैं?


जिन गुणों की जरूरत कलाम जी बता रहे हैं उन गुणों से युक्त व्यक्तियों की कमी नहीं है इस देश में। लेकिन वे एक जिताऊ प्रोफाइल नहीं बनाते। बाहुबली, माफ़िया, धनपशु, जातीय नेता, सनसनीखेज वक्ता, उन्मादी, जोकर, और जघन्य किस्म के लोग शायद पार्टियों की कसौटी पर ज्यादा खरे उतरते हैं।


सोचिए और बताइए। क्या उपाय है कलाम साहब के बताये रास्ते पर चलने का?