....आज हिंदुस्तान में एक सर्वे आया है। कुल ६२२ लोगों में से ७४ फीसदी लोगों को मायावती का पीएम बनना पसंद नहीं हैं। इतनी ही फीसदी लोगों को लगता है कि भारत की विदेशों में छवि ख़राब हो जाएगी। अब इनकी सोच राजनीतिक कारणों से होती तो समझ में आती कि हम पहले से ही किसी पार्टी को पसंद करते हैं तो मायावती के लिए जगह नहीं हैं। मगर इनकी सोच की बुनियाद में एक डर है।
उत्तरप्रदेश की पूरी अस्सी सीटें ही मायावती जीत जाएं तो पीएम बनने से कौन रोक लेगा। यह एक ख्याली बात ज़रूर है मगर इसलिए कह रहा हूं कि इतने बड़े प्रदेश में साफ बहुमत के साथ सरकार चलाने वाली महिला को लेकर अब भी डर है। चार बार मुख्यमंत्री बनना किसी को पसंद नहीं आ रहा। लोग भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती ने खंडित राजनीति को खत्म कर दिया है। अब वहां एक पार्टी की सरकार है। बीजेपी, कांग्रेस अपना वजूद बचाते हुए मुलायम और अजित के सहारे मायावती से लड़ रहे हैं। पहले मायावती सबसे लड़ती थीं और अब सब मायावती से लड़ रहे हैं। यह एक बदलाव मायावती ने अकेले दम पर किया है।....
यूपी में मायावती के अस्सी फीसदी विधायक दूसरी जाति से हैं। यानी हर जाति के लोग जो अपर कास्ट कहलाना पसंद करते हैं, मायावती के आदेशों को सर आंखों पर रखते हैं और दौड़े चले आते हैं। एक यह क्रांतिकारी बदलाव है। एक महिला, एक दलित के साथ काम करने के लिए होड़ मची है।
रवीश जी की कलम से ऐसा सतही विश्लेषण अपेक्षित नहीं था। दुखद है यह।
सच यह है कि मायावती की योग्यता भारतीय लोकतंत्र की चुनावी पद्धति और भारतीय समाज की जातीयता आधारित सोच का सटीक इश्तेमाल कर लेने भर की है।
हमारे चुनाव बहुमत के सबसे सरल किन्तु आभासी रूप पर आधारित हैं जहाँ बहुमत कुल मतों के सापेक्ष नहीं देखा जाता बल्कि अन्य उम्मीदवारों के सापेक्ष देखा जाता है। कुल १०० मतदाताओं में से १० का वोट पाने वाला भी बहुमत से जीता हुआ माना जाता है। कारण यह कि शेष ९० में से ५०-६० तो वोट डालते ही नहीं और बाकी ३०-४० वोट अन्य उम्मीदवार थोड़ा थोड़ा बाँट लेते हैं। एक सफल उम्मीदवार वही है जो इन दस-बीस वोटों का जुगाड़ पक्का कर ले।
मायावती जी ने पहले कांशीराम जी की छत्रछाया में दलित जाति को अपना बनाया। तरीका आसान था। दलित वर्ग में जागरूकता नहीं बल्कि शेष तीन वर्गों के विरुद्ध आक्रोश भरकर। उस समय का नारा तिलक, तराजू, और तलवार; इनको मारो जूते चार याद है न...!
जब दलित समुदाय इनकी जेब में चला गया तब सवर्णों के दूसरे विरोधी मुलायम जी के जेब में बन्द ‘पिछड़े’ समुदाय के साथ गठबन्धन का दौर चला लेकिन वहाँ ‘सहयोग’ पर ‘प्रतिद्वन्द्विता’ हावी हो गयी।
केवल दलित वोट से जिताऊ बहुमत नहीं मिल पाता इसलिए उन्होंने अपनी दलित भावना को थोड़ा चौड़ा किया और बहुजन से सर्वजन की ओर कूँच किया है। कलेजे पर पत्थर रखकर उनको फुसलाने चल पड़ीं जो सबसे बड़े विरोधी हुआ करते थे। ब्राह्मण समुदाय भाजपा और कांग्रेस के लिजलिजे, नपुंसक और भ्रष्ट नेताओं से कुपित होकर, तथा ठाकुर बिरादरी की मुलायम-अमर की अति भ्रष्ट, उद्दण्ड और सिद्धान्तहीन (और बाद में अधोगामी) जोड़ी के साथ पींगे बढ़ाने को देखते हुए मजबूरी में इस माया के साथ जा लगा। यह हमारे समाज की संरचना, लोगों की स्मरणलोप की प्रवृत्ति और घटिया मानसिकता ही ऐसी है कि मायावती की नीति सफल हो रही है।
लेकिन इसका अर्थ यदि रवीश जी यह लगाते हैं कि समाज का ७६ प्रतिशत वर्ग उन्हें नापसन्द करने के कारण ‘मूर्ख’ है तो शायद वे आज आइने के सामने बैठे हुए हैं। सच्चाई यह है कि मायावती की राजनीति में उन सभी बुराइयों ने आसमान छुआ है जो कांग्रेसी या भाजपाई सरकारों में छिपछिपाकर की जाती थीं। जिनके प्रति एक संकोच और सामाजिक अस्वीकृति का डर हुआ करता था। सपाइयों ने इन्हें संस्थागत बना दिया था।
अपराधी तत्वों का प्रयोग, जातिवादी भावनाओं का प्रसार, चुनावी समीकरण में उम्मीदवार की व्यक्तिगत योग्यता के बजाय उसके धनबल और पशुबल को अधिक महत्व, सत्ता में आने पर सरकारी तंत्र को काली कमाई करने की मशीन बनाना, सरकारी पदों पर योग्यता के बजाय जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय और थैली भेंट करने की क्षमता के आधार पर तैनाती, संवैधानिक पदों पर अयोग्य, नपुंसक, स्वामीभक्त, निर्लज्ज और भ्रष्ट व्यक्तियों को बिठाकर उनसे अपने स्वार्थ की सिद्धि कराने का काम इस सरकार ने जिस पैमाने पर किया है वह मुलायम जी के बनाये रिकार्ड को काफी पीछे छोड़ चुका है।
इसलिए यदि रवीश जी मुग्ध होकर माया मेमसाहब की यह विरुदावली गा रहे हैं और ७६% लोगों को मूर्ख कह कर जुगुप्सा फैला रहे हैं तो यह संकेत देता है कि तथाकथित चौथा स्तम्भ अब दीमकों का शिकार हो गया है। समाज के तथाकथित प्रहरी अब नेताओं का दिया माल उड़ाकर फाइव स्टार शैली का जीवन जीने के लिए अपनी आत्मा को कोठे पर सजा चुके हैं