Monday, March 23, 2009

कस्बा पर मायावती की आरती में आप भी शामिल हो लें।

कस्बा पर रवीश कुमार जी ने मायावती के सम्बन्ध में एक पोस्ट लिखी है। ये वही स्टार पत्रकार हैं जो आजकल एन.डी.टी.वी. इण्डिया के प्राइम टाइम के मजे हुए एंकर हैं। किसी जनमत सर्वेक्षण का विश्लेषण करते हुए इन्होंने लिखा है;
....आज हिंदुस्तान में एक सर्वे आया है। कुल ६२२ लोगों में से ७४ फीसदी लोगों को मायावती का पीएम बनना पसंद नहीं हैं। इतनी ही फीसदी लोगों को लगता है कि भारत की विदेशों में छवि ख़राब हो जाएगी। अब इनकी सोच राजनीतिक कारणों से होती तो समझ में आती कि हम पहले से ही किसी पार्टी को पसंद करते हैं तो मायावती के लिए जगह नहीं हैं। मगर इनकी सोच की बुनियाद में एक डर है।


उत्तरप्रदेश की पूरी अस्सी सीटें ही मायावती जीत जाएं तो पीएम बनने से कौन रोक लेगा। यह एक ख्याली बात ज़रूर है मगर इसलिए कह रहा हूं कि इतने बड़े प्रदेश में साफ बहुमत के साथ सरकार चलाने वाली महिला को लेकर अब भी डर है। चार बार मुख्यमंत्री बनना किसी को पसंद नहीं आ रहा। लोग भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती ने खंडित राजनीति को खत्म कर दिया है। अब वहां एक पार्टी की सरकार है। बीजेपी, कांग्रेस अपना वजूद बचाते हुए मुलायम और अजित के सहारे मायावती से लड़ रहे हैं। पहले मायावती सबसे लड़ती थीं और अब सब मायावती से लड़ रहे हैं। यह एक बदलाव मायावती ने अकेले दम पर किया है।....

यूपी में मायावती के अस्सी फीसदी विधायक दूसरी जाति से हैं। यानी हर जाति के लोग जो अपर कास्ट कहलाना पसंद करते हैं, मायावती के आदेशों को सर आंखों पर रखते हैं और दौड़े चले आते हैं। एक यह क्रांतिकारी बदलाव है। एक महिला, एक दलित के साथ काम करने के लिए होड़ मची है।


रवीश जी की कलम से ऐसा सतही विश्लेषण अपेक्षित नहीं था। दुखद है यह।

सच यह है कि मायावती की योग्यता भारतीय लोकतंत्र की चुनावी पद्धति और भारतीय समाज की जातीयता आधारित सोच का सटीक इश्तेमाल कर लेने भर की है।

हमारे चुनाव बहुमत के सबसे सरल किन्तु आभासी रूप पर आधारित हैं जहाँ बहुमत कुल मतों के सापेक्ष नहीं देखा जाता बल्कि अन्य उम्मीदवारों के सापेक्ष देखा जाता है। कुल १०० मतदाताओं में से १० का वोट पाने वाला भी बहुमत से जीता हुआ माना जाता है। कारण यह कि शेष ९० में से ५०-६० तो वोट डालते ही नहीं और बाकी ३०-४० वोट अन्य उम्मीदवार थोड़ा थोड़ा बाँट लेते हैं। एक सफल उम्मीदवार वही है जो इन दस-बीस वोटों का जुगाड़ पक्का कर ले।

मायावती जी ने पहले कांशीराम जी की छत्रछाया में दलित जाति को अपना बनाया। तरीका आसान था। दलित वर्ग में जागरूकता नहीं बल्कि शेष तीन वर्गों के विरुद्ध आक्रोश भरकर। उस समय का नारा तिलक, तराजू, और तलवार; इनको मारो जूते चार याद है न...!

जब दलित समुदाय इनकी जेब में चला गया तब सवर्णों के दूसरे विरोधी मुलायम जी के जेब में बन्द ‘पिछड़े’ समुदाय के साथ गठबन्धन का दौर चला लेकिन वहाँ ‘सहयोग’ पर ‘प्रतिद्वन्द्विता’ हावी हो गयी।

केवल दलित वोट से जिताऊ बहुमत नहीं मिल पाता इसलिए उन्होंने अपनी दलित भावना को थोड़ा चौड़ा किया और बहुजन से सर्वजन की ओर कूँच किया है। कलेजे पर पत्थर रखकर उनको फुसलाने चल पड़ीं जो सबसे बड़े विरोधी हुआ करते थे। ब्राह्मण समुदाय भाजपा और कांग्रेस के लिजलिजे, नपुंसक और भ्रष्ट नेताओं से कुपित होकर, तथा ठाकुर बिरादरी की मुलायम-अमर की अति भ्रष्ट, उद्दण्ड और सिद्धान्तहीन (और बाद में अधोगामी) जोड़ी के साथ पींगे बढ़ाने को देखते हुए मजबूरी में इस माया के साथ जा लगा। यह हमारे समाज की संरचना, लोगों की स्मरणलोप की प्रवृत्ति और घटिया मानसिकता ही ऐसी है कि मायावती की नीति सफल हो रही है।

लेकिन इसका अर्थ यदि रवीश जी यह लगाते हैं कि समाज का ७६ प्रतिशत वर्ग उन्हें नापसन्द करने के कारण ‘मूर्ख’ है तो शायद वे आज आइने के सामने बैठे हुए हैं। सच्चाई यह है कि मायावती की राजनीति में उन सभी बुराइयों ने आसमान छुआ है जो कांग्रेसी या भाजपाई सरकारों में छिपछिपाकर की जाती थीं। जिनके प्रति एक संकोच और सामाजिक अस्वीकृति का डर हुआ करता था। सपाइयों ने इन्हें संस्थागत बना दिया था।

अपराधी तत्वों का प्रयोग, जातिवादी भावनाओं का प्रसार, चुनावी समीकरण में उम्मीदवार की व्यक्तिगत योग्यता के बजाय उसके धनबल और पशुबल को अधिक महत्व, सत्ता में आने पर सरकारी तंत्र को काली कमाई करने की मशीन बनाना, सरकारी पदों पर योग्यता के बजाय जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय और थैली भेंट करने की क्षमता के आधार पर तैनाती, संवैधानिक पदों पर अयोग्य, नपुंसक, स्वामीभक्त, निर्लज्ज और भ्रष्ट व्यक्तियों को बिठाकर उनसे अपने स्वार्थ की सिद्धि कराने का काम इस सरकार ने जिस पैमाने पर किया है वह मुलायम जी के बनाये रिकार्ड को काफी पीछे छोड़ चुका है।

इसलिए यदि रवीश जी मुग्ध होकर माया मेमसाहब की यह विरुदावली गा रहे हैं और ७६% लोगों को मूर्ख कह कर जुगुप्सा फैला रहे हैं तो यह संकेत देता है कि तथाकथित चौथा स्तम्भ अब दीमकों का शिकार हो गया है। समाज के तथाकथित प्रहरी अब नेताओं का दिया माल उड़ाकर फाइव स्टार शैली का जीवन जीने के लिए अपनी आत्मा को कोठे पर सजा चुके हैं

Thursday, March 19, 2009

कैसे-कैसे चाँद मुहम्मद? बताइए ना...!

क्यों गुरू...! टीवी पर कुछ देखा?
हाँ, फ़िजा ने चाँद मोहम्मद की जिन्दगी बदल दी।
बदल क्या दी, बर्बाद कर दी।
लेकिन बर्बाद तो खुद भी हो गयी?
वो तो बर्बाद थी ही। कौन जानता था उसे...?
बड़े शिकार पर हाथ डाला लेकिन धोखा खा गयी।
तो क्या उसे नेता ही मिला था?
चालाक थी जी, तबतक छूने नहीं दिया होगा जबतक शादी न हो जाय।
चन्द्र मोहन तो deputy CM की कुर्सी से गिर पड़ा उस माल के चक्कर में।
बेवकूफ़ लगता है जी।
और क्या?
हाँ यार, लंगोट के ढीले तो और भी हैं राजनीति में... लेकिन मैनेज कर लेते हैं। यही कच्चा निकला।
तुम उस कारसेवक मुख्य मन्त्री की बात कर रहे हो क्या?
अरे नहीं यार, वो कहाँ मैनेज कर पाया। वह भी तो उस पार्षद के चक्कर में अपना कबाड़ा निकलवा चुका...
तो क्या वो पहलवान मास्टर मैनेज कर रहे हैं...?
उसको भी सभी जान गये हैं। इसकी वाली तो दूसरी जोरू बनकर बच्चा भी पैदा कर चुकी है...
गड़बड़ तो भ्रमर सिंह ने शुरू की है...
हाँ, इसे तो सभी पुराने समाजवादी दल्लाल कहने लगे हैं।
इसने जब से पहलवान को मैनेज करना शुरू किया है तबसे धरती पुत्र भी बॉलीवुड की सुन्दरियों में ज्यादा रम गये हैं।
सुना था भ्रमर सिंह किसी पुरानी बेइज्जती का बदला निकाल रहे हैं।
यह सही है, मैने सुना है कि उसके बेटे और भाई ने कमरा बन्द करके इसको जूतों से मारा था।
तभी से इसने कसम खा ली कि इस समाजवादी परिवार को बर्बाद करके दम लूंगा..।
यार, बात सही लगती है। रास्ता तो उसने यही दिखाया है...
तो फिर कांग्रेस ही ठीक बची है... क्यों?
धत्‌! नेहरू को भूल गये क्या? मैडम एड्‌वीना के लिए इन्होंने क्या-क्या नहीं किया।
लेकिन उन्होंने तो माउण्टबेटन से देश की आजादी जल्दी करा लेने में अपनी लंगोटिया दोस्ती का लाभ उठा लिया।
इसका मतलब तो कांग्रेस की नींव में ही आशनाई और प्यार मोहब्बत का खेल है ..
और क्या? गान्धी परिवार में किसी की नॉर्मल शादी हुई क्या?
सबने अपने पार्टनर को दूसरी जाति या पराये पन्थ से उड़ाया..
इन्दिरा जी ने पारसी से, संजय ने पंजाबी से, राजीव गान्धी तो खुद ही ईसाई बन गये। प्रियंका का पति वो बढ़ेरा ...
ये कौन जात का है?
पता नहीं...।
राहुल को तो कोई ढूढे नहीं मिल रही है।
सोच रहा होगा कुछ नया करने को...। किसी दूसरे ग्रह से लाएगा शायद,...
अरे यार नेहरू गजब का स्मार्ट था... लड़कियाँ मरती होंगी उसपर
राहुल पर कोई नहीं मरी?
लेकिन वाजपेयी जी तो गजब कर गये। कोई माई का लाल उंगली नहीं उठा सकता...।
क्या बकते हो...? उन्होंने तो खुद ही कह दिया था कि मैं कुँवारा हूँ लेकिन ब्रह्मचारी नहीं हूँ।
यह तो बड़ी ईमानदारी की बात है भाई।
तो चाँद मुहम्मद ने ही कौन चोरी की है? सबको बताकर तो किया?
लेकिन वह अनाड़ी निकला न।
शादी करने की क्या जरूरत थी। वैसे ही रख लेता...।
हाँ यार, कितने मन्त्री तो रखते हैं।
यू.पी. के एक मन्त्री जी किसी मास्टरनी के पीछे बदनाम होने लगे तो उसे उड़वा ही दिया ...

बात इसके आगे भी बढ़ी होगी लेकिन मेरा स्टेशन आ गया और मैं गाड़ी से उतर गया। मन कर रहा था कि दो-चार स्टेशन आगे तक चला जाऊँ और भारतीय राजनीति के कुछ और चाँद मुहम्मद लोगों के बारे में जान लूँ। पर बेटिकट पकड़े जाने का डर था सो उतर आया हूँ।

अब सोचता हूँ, आपलोगों से कहूँ। अपने-अपने इलाके के चाँद मुहम्मदों के बारे में बताइए। ऊपर चर्चा कर रहे रेलयात्रियों का नाम भी मुझे नहीं मालूम। आपका परिचय जानने में भी मुझे खास रुचि नहीं है। बस ऐसे महारथियों के बारे में खुलकर बताइए जो अपना ‘
लिबिडो’ (libido) सम्हालकर रखने के बजाय अपनी सामाजिक और राजनैतिक छवि भी दाँव पर लगाकर इस लिप्साकुण्ड में कूद गये हैं। नाम लेना जरूरी नहीं है। बस कारनामों का खुलासा करिए। सुप्रीम कोर्ट से डरना तो पड़ेगा भाई।

Tuesday, March 17, 2009

कैसे-कैसे चाँद मुहम्मद...?

क्यों गुरू...! टीवी पर कुछ देखा?
हाँ, फ़िजा ने चाँद मोहम्मद की जिन्दगी बदल दी।
बदल क्या दी, बर्बाद कर दी।
लेकिन बर्बाद तो खुद भी हो गयी?
वो तो बर्बाद थी ही। कौन जानता था उसे...?
बड़े शिकार पर हाथ डाला लेकिन धोखा खा गयी।
तो क्या उसे नेता ही मिला था?
चालाक थी जी, तबतक छूने नहीं दिया होगा जबतक शादी न हो जाय।
चन्द्र मोहन तो deputy CM की कुर्सी से गिर पड़ा उस माल के चक्कर में।
बेवकूफ़ लगता है जी।
और क्या?
हाँ यार, लंगोट के ढीले तो और भी हैं राजनीति में... लेकिन मैनेज कर लेते हैं। यही कच्चा निकला।
तुम उस कारसेवक मुख्य मन्त्री की बात कर रहे हो क्या?
अरे नहीं यार, वो कहाँ मैनेज कर पाया। वह भी तो उस पार्षद के चक्कर में अपना कबाड़ा निकलवा चुका...
तो क्या वो पहलवान मास्टर मैनेज कर रहे हैं...?
उसको भी सभी जान गये हैं। इसकी वाली तो दूसरी जोरू बनकर बच्चा भी पैदा कर चुकी है...
गड़बड़ तो भ्रमर सिंह ने शुरू की है...
हाँ, इसे तो सभी पुराने समाजवादी दल्लाल कहने लगे हैं।
इसने जब से पहलवान को मैनेज करना शुरू किया है तबसे धरती पुत्र भी बॉलीवुड की सुन्दरियों में ज्यादा रम गये हैं।
सुना था भ्रमर सिंह किसी पुरानी बेइज्जती का बदला निकाल रहे हैं।
यह सही है, मैने सुना है कि उसके बेटे और भाई ने कमरा बन्द करके इसको जूतों से मारा था।
तभी से इसने कसम खा ली कि इस समाजवादी परिवार को बर्बाद करके दम लूंगा..।
यार, बात सही लगती है। रास्ता तो उसने यही दिखाया है...
तो फिर कांग्रेस ही ठीक बची है... क्यों?
धत्‌! नेहरू को भूल गये क्या? मैडम एड्‌वीना के लिए इन्होंने क्या-क्या नहीं किया।
लेकिन उन्होंने तो माउण्टबेटन से देश की आजादी जल्दी करा लेने में अपनी लंगोटिया दोस्ती का लाभ उठा लिया।
इसका मतलब तो कांग्रेस की नींव में ही आशनाई और प्यार मोहब्बत का खेल है ..
और क्या? गान्धी परिवार में किसी की नॉर्मल शादी हुई क्या?
सबने अपने पार्टनर को दूसरी जाति या पराये पन्थ से उड़ाया..
इन्दिरा जी ने पारसी से, संजय ने पंजाबी से, राजीव गान्धी तो खुद ही ईसाई बन गये। प्रियंका का पति वो बढ़ेरा ...
ये कौन जात का है?
पता नहीं...।
राहुल को तो कोई ढूढे नहीं मिल रही है।
सोच रहा होगा कुछ नया करने को...। किसी दूसरे ग्रह से लाएगा शायद,...
अरे यार नेहरू गजब का स्मार्ट था... लड़कियाँ मरती होंगी उसपर
राहुल पर कोई नहीं मरी?
लेकिन वाजपेयी जी तो गजब कर गये। कोई माई का लाल उंगली नहीं उठा सकता...।
क्या बकते हो...? उन्होंने तो खुद ही कह दिया था कि मैं कुँवारा हूँ लेकिन ब्रह्मचारी नहीं हूँ।
यह तो बड़ी ईमानदारी की बात है भाई।
तो चाँद मुहम्मद ने ही कौन चोरी की है? सबको बताकर तो किया?
लेकिन वह अनाड़ी निकला न।
शादी करने की क्या जरूरत थी। वैसे ही रख लेता...।
हाँ यार, कितने मन्त्री तो रखते हैं।
यू.पी. के एक मन्त्री जी किसी मास्टरनी के पीछे बदनाम होने लगे तो उसे उड़वा ही दिया ...

बात इसके आगे भी बढ़ी होगी लेकिन मेरा स्टेशन आ गया और मैं गाड़ी से उतर गया। मन कर रहा था कि दो-चार स्टेशन आगे तक चला जाऊँ और भारतीय राजनीति के कुछ और चाँद मुहम्मद लोगों के बारे में जान लूँ। पर बेटिकट पकड़े जाने का डर था सो उतर आया हूँ।

अब सोचता हूँ, आपलोगों से कहूँ। अपने-अपने इलाके के चाँद मुहम्मदों के बारे में बताइए। ऊपर चर्चा कर रहे रेलयात्रियों का नाम भी मुझे नहीं मालूम। आपका परिचय जानने में भी मुझे खास रुचि नहीं है। बस ऐसे महारथियों के बारे में खुलकर बताइए जो अपना ‘
लिबिडो’ (libido) सम्हालकर रखने के बजाय अपनी सामाजिक और राजनैतिक छवि भी दाँव पर लगाकर इस लिप्साकुण्ड में कूद गये हैं। नाम लेना जरूरी नहीं है। बस कारनामों का खुलासा करिए। सुप्रीम कोर्ट से डरना तो पड़ेगा भाई।

Sunday, March 15, 2009

खुलकर बोलिए... कुछ भी और सबकुछ।

लजाइए नहीं, आप जो भी हैं हम पूछने नहीं जाएंगे। यहाँ यह कत्तई जरूरी नहीं है। जरूरी है तो सिर्फ़ अपने मन की बात बिना किसी लाग लपेट के कह देने की। हाँ अश्लील बातों को कहकर इस पन्ने को गन्दा और ‘न जाने लायक’ जगह न बनाइए। यहाँ नेता, मन्त्री, वेश्या, चकला, संसद, अमर सिंह, दल्लाल, कल्याण सिंह, ढीली लंगोट, चाँद मोहम्मद, मुल्ला, फ़िजा, इमराना, तालिबान, मुशर्रफ़, पोंगा पण्डित, इमाम, हरामखोरी, सेकुलर, टुटपुँजिए, दिवाकर, निशाचर, गुनाहे-बेलज्जत, मैडम, माइनो, लल्लाजी, राहुल, कुसुम, बहनजी,.... चाहे जो विषय चाहें, उसपर अपने सुविचार, कुविचार, अनाचार, कदाचार प्रकत कर सकते हैं। व्यभिचार से परहेज कर लें तो ठीक रहेगा। तो देर किस बात की। शुरू हो जाइए...।

इस पन्ने पर हिन्दी अंग्रेजी दोनो चलेगा। कोशिश करिए कि हिन्दी देवनागरी में और अंग्रेजी रोमन लिपि में रहे। इधर का माल उधर तो खिंचड़ी हो जाती है।

We live in a civil society. It is supposed that our behavior must be civilized. But the process of civilization makes us dishonest to our natural instinct. We are taught to behave in a certain manner so as not to offend others. So what if we artificially lie to ourselves in order to seem decent?

This so called etiquette and political correctness usurps the spirit of objectivity and distinctness of ideas. Many forums are erected to block the onslaught of the inconvenient reality and protest against the speakers of the truth.

This medium of blogging gives some opportunity to speak your mind without fear and favor. But this can be done only when one has no interest in floating his/her name for popularity, has no image consciousness and a thirst for praise. Let only the ideas float, let only the free articulation be popular, and make only the inadequacies thirsty for fulfillment and solution.

All the visitors are free to ventilate their compressed, suppressed and depressed feelings into this comment box without any hindrance. Only self regulation will suffice to this page.

(Malaya)